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दृष्टि का विषय
उन प्रतिबिम्बों को गौण करते ही स्वच्छ दर्पण दृष्टि में आता है; इसी प्रकार आत्मा में अर्थात् ज्ञान में जो ज्ञेय होते हैं, उन ज्ञेयों को गौण करते ही निर्विकल्परूप ज्ञान का अर्थात् 'शुद्धात्मा' का अनुभव होता है; यह ही सम्यग्दर्शन की विधि है, इसी विधि से अशुद्ध आत्मा में भी सिद्ध समान शुद्धात्मा का निर्णय करना और उसी में 'मैंपना' करने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है।
___ कोई ऐसा मानते हों कि द्रव्य में शुद्ध भाग और अशुद्ध भाग ऐसे दो भाग हैं और जो शुद्ध भाग है वह द्रव्य है तथा अशुद्ध भाग है वह पर्याय है तो द्रव्य में अपेक्षा से समझने से दो भाग नहीं परन्तु दो भाव हैं कि जो बात हमने प्रथम ही शास्त्र की गाथाओं से नि:सन्देह सिद्ध की ही है। वे दो भाव इस प्रकार हैं कि जो विशेष है, वह पर्याय कहलाता है कि जो विभावभाव सहित होने से अशुद्ध कहलाता है और जो उसका ही सामान्य भाव है कि जो परमपारिणामिकभावरूप है, वह द्रव्य, कि जो त्रिकाल शुद्ध ही होता है; इस अपेक्षा से द्रव्य शुद्ध और पर्याय अशुद्ध ऐसा कहा जाता है परन्तु दो भाग रूप नहीं है।
जैसे छद्मस्थ जीवों को आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त-अनन्त कार्मण वर्गणायें हैं और वे कार्मण वर्गणायें आत्मा के सर्व प्रदेशों के साथ क्षीर-नीरवत् (ध में पानी की भाँति) सम्बन्ध से बँधी हुई होने की अपेक्षा से आत्मा का कोई भी प्रदेश शुद्ध नहीं है अर्थात् यदि कोई ऐसा कहे कि आत्मा के मध्य के आठ रूचक प्रदेश तो निरावरण ही होते हैं, तो उन्हें हम बतलाते हैं कि यदि आत्मा का मात्र एक भी प्रदेश निरावरण हो तो उस प्रदेश में इतनी शक्ति है कि वह सर्व लोकालोक को जान ले, क्योंकि यदि एक भी प्रदेश निरावरण हो तो उस प्रदेश में केवलज्ञान
और केवलदर्शन मानने का प्रसंग आयेगा और इससे वह आत्मा सर्व लोकालोक सहज रीति से ही जाननेवाला हो जायेगा परन्तु प्रगट में देखने से अपने को ज्ञात होता है कि ऐसा तो किसी भी जीव में घटित होता ज्ञात नहीं होता है। इस कारण से जीव के मध्य के आठ रूचक प्रदेश निरावरण होते हैं, इस बात का निराकरण होता है। यह बात सत्य नहीं है, जिसका प्रमाण है धवल पुस्तक १२ में-पृष्ठ क्रमांक ३६५ से ३६८। वह जिज्ञासु जीवों को देख लेने की हमारी प्रार्थना है।