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गाथा २४३
दृष्टि का विषय अन्वयार्थ - ‘प्रकृत कथन में ऐसा मानने में आया है कि सत् को कोई अन्य (पूर्व) पर्याय से विनाश तथा किसी अन्य (वर्तमान) पर्याय से उत्पाद तथा उन दोनों से भिन्न किसी सदृश्य पर्याय से (द्रव्य सामान्यरूप कि जिसकी दोनों पर्यायें बनी हैं और जो सामान्यरूप होने से ऐसा का ऐसा ही उत्पन्न होता है इसलिए उसे सदश-पर्यायरूप = परम पारिणामिक भावरूप कहा जाता है) ध्रौव्य होता है।' अब इसका ही उदाहरण बतलाते हैं
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गाथा २४४ - अन्वयार्थ - 'यहाँ उदाहरण वृक्ष की भाँति है कि जैसे वह वृक्ष सतात्मक अंकुररूप से स्वयं ही (अर्थात् वृक्ष स्वयं ही अर्थात् द्रव्य स्वयं ही) उत्पन्न है, बीज रूप नष्ट है (पूर्व पर्याय से नष्ट कहा जाता है) तथा दोनों अवस्थाओं में वृक्षपने से ध्रौव्य (अर्थात् समझना यह है कि वृक्षरूप ध्रौव्य किसी पर्याय से भिन्न अपरिणामी विभाग नहीं, परन्तु जो पर्याय है वह विशेष है और उसका ही सामान्य अर्थात् वह जिसकी बनी हुई है, उसे ही ध्रौव्य कहा जाता है अर्थात् अन्य कोई अपरिणामी ध्रौव्य अलग नहीं है, यह समझना आवश्यक है कि वह द्रव्य ही है कि जिसकी पर्याय बनी हुई है, वह द्रव्यपने से ध्रौव्य) ऐसा भी है अर्थात् वृक्ष में (अर्थात् द्रव्य में )अलग-अलग अपेक्षा से ये तीनों (बीज, अंकुर और वृक्षपना अर्थात् व्यय, उत्पाद और ध्रौव्यपना) एक समय में होता है।' ऐसा है जैन सिद्धान्त अनुसार वस्तु का स्वरूप जो कि प्रत्येक मोक्षेच्छुक को स्वीकार करना ही पड़ेगा ।
भावार्थ:- - '... बीज के अभाव और अंकुर के उत्पादरूप दोनों अवस्थाओं में सामान्यरूप से वृक्षत्व मौजूद है...' अर्थात् समझना यह है कि विशेषरूप अवस्थाएँ (पर्यायें) सामान्यरूप (द्रव्य) की ही बनी हुई है।
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गाथा २४६ – अन्वयार्थ - 'जिस कारण से उत्पाद और व्यय इन दोनों का आत्मा स्वयं सत्, वही है (अर्थात् उत्पाद, व्ययरूप पर्याय सत्रूप द्रव्य की ही बनी है कि जिसे सामान्यरूप ध्रौव्य कहा जाता है) इसलिए ये दोनों तथा वस्तु अर्थात् ध्रौव्य ये तीनों सत् ही हैं, सत् से अन्य नहीं अर्थात् भिन्न नहीं (भिन्न प्रदेशी नहीं ) । ' वास्तव में वस्तु अभेद होने से ही ऐसी वस्तुव्यवस्था घटित होती है। अब सारांश
गाथा २४७ - अन्वयार्थ - 'पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से उत्पाद है, व्यय है तथा ध्रौव्य परन्तु द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से न उत्पाद है, न व्यय है तथा न ध्रौव्य है।'
इसलिए हम जब द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तु को अर्थात् प्रमाणरूप द्रव्य को मात्र द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से त्रिकाली ध्रुव कहते हैं तब किसी को प्रश्न होगा कि इसमें प्रमाण का द्रव्य क्यों