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दृष्टि का विषय
पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ
गाथा ६७ - ‘अन्वयार्थ - ......जैसे परिणमनशील आत्मा यद्यपि ज्ञानगुणपने से अवस्थित है तथापि ज्ञानगुण के तरतमरूप अपनी अपेक्षा से अनवस्थित है।'
अर्थात् आत्मा (द्रव्य) परिणमनशील है और फिर भी उसे टिकते भाव से=ज्ञानगुण =ज्ञायकभाव से देखने में आवे तो वह वैसा का वैसा ही ज्ञात होता है अर्थात् अवस्थित है और यदि ज्ञानगुण की ही तारतमतारूप अवस्था से अर्थात् विकल्परूप=ज्ञेयरूप अवस्था से देखने में आवे तो वह वैसा का वैसा नहीं रहता अर्थात् अनवस्थित ज्ञात होता है, यही अनुक्रम से द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि है।
गाथा ६८-६९ अन्वयार्थ – 'यदि ऊपर के कथन अनुसार गुण-गुणांश की (गुण-पर्याय की) कल्पना न मानने में आवे तो द्रव्य, गुणांश की भाँति निरंश हो जाता अथवा वह द्रव्य, कूटस्थ की भाँति नित्य हो जाता, परिणमनशील बिल्कुल नहीं होता अथवा क्षणिक हो जाता अथवा यदि तुम्हारा ऐसा अभिप्राय हो कि अनन्त अविभागी गुणांशों का मानना तो ठीक है परन्तु उन सब निरंश अंशों का परिणमन समान अर्थात् एक सरीखा होना चाहिए परन्तु तारतमरूप (तीव्रमंदरूप) नहीं होना चाहिए।'
भावार्थ - ‘द्रव्यार्थिकनय से वस्तु अवस्थित है तथा पर्यायार्थिकनय से वस्तु अनवस्थित है। इस प्रकार की (वस्तु में) प्रतीति होने के कारण से गुण-गुणांश कल्पना सार्थक है ऐसा पहले सिद्ध किया है, अब उसी (वस्तुस्वरूप को) दृढ़ करने के लिये व्यतिरेकरूप से ऊहापोह की जाती है कि-यदि गुण-गुणांश कल्पना मानने में न आवे तो द्रव्य के स्वरूप में चार अनिष्ट पक्ष उत्पन्न होने का प्रसंग आयेगा, और वे इस प्रकार :- १. एक गुणांश की भाँति द्रव्य को निरंश मानना पड़ेगा; २. द्रव्य में मात्र गुणों का ही सद्भाव मानने से कीलक की भाँति उसे कूटस्थ अर्थात् अपरिणामी मानना पड़ेगा; ३. गुणों के अतिरिक्त मात्र गुणांश कल्पना ही मानने पर उसे (द्रव्य को) क्षणिक मानना पड़ेगा; तथा ४. गुणों के अनन्त अंश मानने पर भी उनका समान परिणमन मानना पड़ेगा परन्तु तरतम अंशरूप नहीं माना जा सकेगा।'
गाथा ७० - अन्वयार्थ – ‘ऊपर के चारों पक्ष भी दोषयुक्त हैं क्योंकि वे प्रत्यक्षरूप से बाधित हैं और वे प्रत्यक्ष बाधित इसलिए हैं कि - उन पक्षों को सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण