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द्रव्य-गुण व्यवस्था
भावार्थ – “
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'व्यवहारनय से 'गुणवद्द्रव्यं' गुणवाले को द्रव्य कहने से ऐसा बोध हो सकता है कि गुण और द्रव्य भिन्न-भिन्न वस्तु है तथा गुण के योग से द्रव्य, द्रव्य कहलाता है, परन्तु ऐसा अर्थ ठीक नहीं है, क्योंकि न गुण है, न द्रव्य है, न दोनों हैं या न दोनों का योग है परन्तु निश्चयनय से केवल एक अद्वैत, अभिन्न, अखण्ड सत् ही है उसे ही, चाहे गुण कहो, चाहे द्रव्य कहो अथवा जो चाहो वह कहो ! सारांश
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गाथा ६३६ :
अन्वयार्थ :- ‘इसलिए यह न्याय से सिद्ध हुआ कि व्यवहारनय है तो भी वह अभूतार्थ है तथा वास्तव में उसका अनुभव करनेवाले जो मिथ्यादृष्टि हैं वे भी यहाँ खण्डित हो चुके ।' अर्थात् जो द्रव्य को अभेद-अखण्ड अनुभव नहीं करते, उन्हें नियम से भ्रमयुक्त मिथ्यादृष्टि
मानना ।
भावार्थ – “व्यवहारनय, उक्त प्रकार के भेद को विषय करता है क्योंकि विधिपूर्वक भेद करना वही 'व्यवहार' शब्द का अर्थ है; इसलिए सिद्ध होता है कि व्यवहारनय अभूतार्थ ही है - परमार्थभूत नहीं तथा वास्तव में उसका अनुभव करनेवाले मिथ्यादृष्टि हैं, वे भी नष्ट हो चुके (अर्थात् वे अनन्त संसारी हो चुके)...." अर्थात् जो भेद में ही रमते हों और भेद की ही प्ररूपणा करते हों उन्हें कभी अभेद द्रव्य अनुभव में ही आनेवाला नहीं है; इसलिए वे मिथ्यादृष्टि हैं . नष्ट हो चुके समान हैं।
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गाथा ६३७ :- अन्वयार्थ :- 'शंकाकार कहता है कि यदि ऐसा कहो तो नियम से निश्चयपूर्वक निश्चयनय ही आदर करने योग्य मानना चाहिए क्योंकि अकिंचित्कारी होने से अपरमार्थभूत व्यवहारनय से क्या प्रयोजन है? यदि ऐसा कहो तो ' - अर्थात् शंकाकार एकान्त से निश्चयनय ही मानना चाहिए ऐसा कहता है। उत्तर
गाथा ६३८-६३९ :- अन्वयार्थ :- " इस प्रकार कहना ठीक नहीं क्योंकि यहाँ आगे द्विप्रतिपत्ति होने पर तथा संशय की आपत्ति आने पर और वस्तु का विचार करने में बलपूर्वक व्यवहारनय प्रवर्त होता है अथवा जो ज्ञान दोनों नयों का अवलम्बन करनेवाला है, वही प्रमाण कहलाता है; इसलिए प्रसंगवश वह व्यवहारनय किसी के लिये ऊपर के (ऊपर बताये हुए) कार्यों के लिए आश्रय करने योग्य है, परन्तु सविकल्प ज्ञानवालों की भाँति निर्विकल्प ज्ञानवालों को वह श्रेयभूत नहीं है।' अर्थात् वह मिथ्यात्वी को तत्त्व समझने / समझाने के लिए आश्रय करने योग्य है परन्तु सम्यग्दृष्टियों को अनुभवकाल में उसका आश्रय नहीं होता अर्थात् वह श्रेयभूत नहीं है।