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पूर्व भूमिका
ओर अनेक महान अलंघ्य समुद्र तथा उनके चारों ओर घनोदधि घन और तनु, इस नाम के तीन पवन से लपेटकर विस्तीर्ण कोट कर रखा और बीच में पूर्ण यत्न से मनुष्य प्राणी को रखा...' और स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २९७ में भी बतलाया है कि 'जैसे महान समुद्र में गिर गया हुआ रत्न फिर से प्राप्त होना दुर्लभ है, इसी प्रकार यह मनुष्यपना प्राप्त होना दुर्लभ है - ऐसा निश्चय करके, हे भव्य जीवो! इस मिथ्यात्व और कषाय को छोड़ो ऐसा श्रीगुरुओं का उपदेश है।' इसलिए यह अमूल्य दुर्लभ मनुष्य जन्म मात्र शारीरिक - इन्द्रियजन्य सुख और उनकी प्राप्ति के लिये खर्च करने योग्य नहीं है, परन्तु उसके एक भी पल को व्यर्थ न गँवा कर, मात्र और मात्र शीघ्रता से शाश्वत् सुख ऐसे आत्मिक सुख की (सम्यग्दर्शन की ) प्राप्ति के लिये लगाना ही योग्य है अर्थात् यदि यह भव सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना गया तो फिर अनन्त काल तक ऐसा सम्यग्दर्शन पाने के योग्य भव प्राप्त होना दुर्लभ ही है इसलिए सर्व जनों को हमारी प्रार्थना है आपको अपना वर्तमान पूर्ण जीवन सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये ही लगाना योग्य है और इसीलिए हम प्रस्तुत पुस्तक में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये जिस विषय का मनन- चिन्तन करके उसी में एकत्व करने योग्य है ऐसा 'दृष्टि का (सम्यग्दर्शन का ) विषय' बतलायेंगे।
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