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दृष्टि का विषय
हैं क्योंकि वह स्वयं को ये सब कार्य करके कृतकृत्य मानता है और शुद्धात्मा का लक्ष्य भी नहीं करता तो ये समस्त भाव उसे विषकुम्भ समान हैं अर्थात् यहाँ बतलाये हुए सर्व अपेक्षा से और निर्विकल्प आत्मस्वरूप में ही स्थिरता कराने के लिये और उसे ही परमधर्म स्थापित करने के लिये इन सर्वभावों को विषकुम्भ कहा है; किसी ने इसे अन्यथा अर्थात् एकान्त से ग्रहण नहीं करना)। अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्हा, और अशुद्धि - यह अमृतकुम्भ है (अर्थात् ऊपर के सर्व भावों के आगे यहाँ अ लगाकर सर्व विकल्पात्मक भावों का निषेध किया है अर्थात् निश्चयनय निषेधरूप होने से और शुद्धात्मा विकल्परहित अर्थात् निर्विकल्प स्वभावरूप होने से कि जो सम्यग्दर्शन का विषय है और बाद में ध्यान का भी विषय है अर्थात् स्थिरता करने का विषय है उसमें ही रहना, वह अमृतकुम्भ समान है अर्थात् मुक्ति का कारण है इसलिए वह अमृतकुम्भ है ऐसा बतलाया है)।'
यहाँ किसी को छल ग्रहण नहीं करना अर्थात् विपरीत समझ ग्रहण नहीं करना। जिस अपेक्षा से उपर्युक्त भावों को विषकुम्भ कहा है, वह समझे बिना एकान्त से उन्हें विषरूप समझकर उन्हें छोड़ नहीं देना और स्वच्छन्द से राग-द्वेषरूप नहीं परिणमना क्योंकि वह तो अभव्य अथवा दूर भव्यपने की ही निशानी है अर्थात् वैसे आत्मा को अनन्त संसार समझना।
जैसे कि समाधितन्त्र गाथा ८६ में बतलाया है कि 'हिंसादि पाँच अव्रतों में अनुरक्त मनुष्य को अहिंसादि व्रतों का धारण करके अव्रत अवस्था में होते विकल्पों का नाश करना तथा अहिंसादिक व्रतों के धारक को ज्ञानस्वभाव में लीन होकर व्रतावस्था में होते विकल्पों का नाश करना और फिर अरहन्त अवस्था में केवलज्ञान से युक्त होकर स्वयं ही परमात्मा होना-सिद्धस्वरूप को प्राप्त करना।' अर्थात् अशुभभाव तो नहीं ही, और शुद्ध भाव का भोग देकर शुभभाव भी नहीं। जिन सिद्धान्त का प्रत्येक कथन सापेक्ष ही होता है और यदि उसे कोई निरपेक्ष समझे - मानेग्रहण करे तो वह उसके अनन्त संसार का कारण होता है, इसलिए वैसा करनेयोग्य नहीं नहीं नहीं ही।
९. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार : यह अधिकार समयसार शास्त्र का हार्द है अर्थात् इस शास्त्र का उद्देश्य है सम्यग्दर्शन प्राप्त कराना और फिर सिद्धत्व दिलाना अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने के लिये भेदज्ञान कराने को, जो सम्यग्दर्शन का विषय है अर्थात् जो शुद्धात्मा है, उसमें कोई विभावभाव न होने से अर्थात् उसमें सर्व विभावभाव का अभाव होने से, वह सर्व विशुद्ध है अर्थात् वह अनादि-अनन्त विशुद्धभाव है जो कि परमपारिणामिकभावरूप, आत्मा के सहज परिणमनरूप, गुणों के सहज परिणमनरूप, ज्ञानमात्र, सामान्य ज्ञानरूप, सामान्य चेतनारूप, सहज