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दृष्टि का विषय
में भी बतलायी है कि शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से, रागादिरूप अपने आप कभी नहीं परिणमता, परन्तु उसमें निमित्त परसंग ही है - ऐसा वस्तु स्वभाव प्रकाशमान है अर्थात् सदा वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है, किसी ने किया नहीं है अर्थात् निमित्त स्वयं उपादानरूप से परिणमता न होने पर भी वह अमुक संयोगों में उपादान को असर करता है और उसे ही वस्तुस्वभाव कहा है; इसीलिए जैन सिद्धान्त को विवेक से ग्रहण किया जाता है और अपेक्षा से समझा जाता है, नहीं कि एकान्त से जो कि महा अनर्थ का कारण है।
८. मोक्ष अधिकार : परमपारिणामिकभावरूप अर्थात् सहज परिणमनयुक्त शुद्धात्मा में 'मैपना' करते ही स्वात्मानुभूतिपूर्वक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और फिर उसी में निरन्तर स्थिरता करने से आत्मा क्षपकश्रेणी माँडकर सर्व घातिकर्मों का नाश करके केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करता है और फिर आयुक्षय को मोक्ष प्राप्त करता है; यही मोक्ष का मार्ग है और इसलिए सर्व जीवों को शुद्धात्मा ही सेवन करने योग्य है, यही मोक्ष अधिकार का सार है।
गाथा २९४ गाथार्थ-'जीव तथा बन्ध नियत स्वलक्षणों से (अपने-अपने निश्चित लक्षणों से) छेदे जाते हैं (अर्थात् जीव का लक्षण ज्ञान है और बन्ध का लक्षण पुद्गलरूप कर्म-नोकर्म
और उनके निमित्त से होते जीव के भावोंरूप है); प्रज्ञारूपी छैनी द्वारा (अर्थात् तीक्ष्ण बुद्धि अथवा भगवती प्रज्ञा से उन दोनों के बीच भेदज्ञान से) छेदने में आने पर (भेदज्ञान करने पर) वे नानापने को प्राप्त होते हैं अर्थात् भिन्न हो जाते हैं (अर्थात् भिन्न अनुभव में आते हैं)।' अर्थात् द्रव्यदृष्टि में मात्र ‘शुद्धात्मा' रूप जीव ही ग्रहण होता है और उसमें ही 'मैंपना' होने पर करने पर स्वात्मानुभूतिसहित सम्यग्दर्शन प्रगट होता है अर्थात् दोनों भावों में प्रगट भेदज्ञान हो जाता है।
गाथा २९४ टीका-'....आत्मा का स्वलक्षण चैतन्य है, क्योंकि वह समस्त शेष द्रव्यों से असाधारण है (अर्थात् अन्य द्रव्यों में वह नहीं है)। वह (चैतन्य) प्रवर्तता हुआ (परिणमता हआ) जिस-जिस पर्याय को व्याप्त कर प्रवर्तता है (अर्थात जिस-जिस पर्यायरूप परिणमता है)
और निवर्तता हुआ जिस-जिस पर्याय को ग्रहण करके निवर्तता है, वे-वे समस्त सहवर्ती या क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा है ऐसा लक्षित करना.... (यहाँ समझना कि आत्मद्रव्य अभेद ही है और वह अभेदरूप ही परिणमता है इसलिए कहा है कि समस्त सहवर्ती या क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा है। जो सर्व प्रथम द्रव्य-गुण-पर्याय की समझ में बतलाया, वही भाव यहाँ भी दृढ़ ही होता है।)'
गाथा २९७ गाथार्थ-प्रज्ञा द्वारा (अर्थात् ज्ञान द्वारा आत्मा को) ऐसा ग्रहण करना कि