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दृष्टि का विषय
प्रतिपादन करता हो तो वह स्वयं तो भ्रष्ट है ही और अन्य अनेकों को भी भ्रष्ट कर रहा है अर्थात् जैन सिद्धान्त में विवेक का ही बोलवाला है अर्थात् सर्व कथन जिस अपेक्षा से कहा हो, उसी अपेक्षा से ग्रहण करना चाहिए, यही विवेक है; इसलिए सर्व मोक्षार्थियों को पूर्व में बतलाये अनुसार एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य से नियम से शुभ में ही रहनेयोग्य है, यही जिन सिद्धान्त का सार है। इसलिए यहाँ बतलाये अनुसार ही अर्थात् विवेकपूर्वक ही सर्व जन सम्यग्दर्शन को पाते हैं और विवेकपूर्वक ही निर्वाण को पाते हैं।
गाथा १५१-गाथार्थ-'निश्चय से जो परमार्थ है (अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप-सहज परिणमनरूप शुद्धात्मा है), समय है, शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है, उस स्वभाव में (शुद्धात्मा में) स्थित मुनि निर्वाण को पाते हैं।'
गाथा १५२-गाथार्थ-‘परमार्थ में अस्थित (अर्थात् मिथ्यादृष्टि) ऐसा जो जीव तप करता है तथा व्रत धारण करता है, उसके वे सर्व तप और व्रत को सर्वज्ञ बालतप और बालव्रत कहते हैं।' अर्थात् इन बालतप और बालव्रत छोड़ने को नहीं कहते परन्तु इनसे भी परम उत्कृष्ट ऐसा
आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं और जो परमार्थ में स्थित हैं, उन्हें तो नियम से आगे व्रत-तप इत्यादि आते ही हैं, ऐसा है जिन सिद्धान्त का विवेक जो कि आत्मा को ऊपर चढ़ने को ही कहता है, नहीं कि अन्यथा। अर्थात् व्रत-तप छोड़कर नीचे गिरने को कभी नहीं बतलाता।
__श्लोक १११-‘कर्मनय के अवलम्बन में तत्पर (अर्थात् कर्मनय के पक्षपाती अर्थात् कर्म को ही सर्वस्व माननेवाले) पुरुष डूबे हुए हैं क्योंकि वे ज्ञान को नहीं जानते (अर्थात् ज्ञानरूप आत्मा की अर्थात् अपनी शक्ति में विश्वास नहीं परन्तु कर्म की अर्थात् पर की शक्ति में विश्वास है)। ज्ञाननय के इच्छुक पुरुष भी डूबे हुए हैं (क्योंकि उन्हें एकान्त से ज्ञान का ही पक्ष होने से वे कर्म को कुछ वस्तु ही नहीं मानते और एकान्त से निश्चयाभासीरूप से परिणमते हैं) क्योंकि वे स्वच्छन्द से अति मन्द उद्यमी हैं (क्योंकि वे निश्चयाभासी होने से, पुण्य और पाप को समानरूप से हेय अर्थात् सर्व अपेक्षा से हेय अर्थात् एकान्त से हेय मानते होने से, कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करते, एकान्त से समझते हैं और वैसा ही बोलते हैं कि 'मैं तो ज्ञानमात्र ही हैं और रचते हैं संसार में, अर्थात् आत्मज्ञान के लिये योग्यता इत्यादिरूप अभ्यास भी नियतिवादियों की तरह नहीं करते क्योंकि वे मानते हैं कि आत्मज्ञान के लिये योग्यता तो उसके काल में आ ही जायेगी; इस प्रकार अपने को ज्ञानमात्र मानते हुए और वैसे ही भ्रम में रहते होने से, धर्म में योग्यता करने के लिये