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दृष्टि का विषय
द्रव्य होने से ही ऐसा बतलाया है। अर्थात् पर्याय ही वर्तमान जीवद्रव्य है, ऐसा जो हमने पूर्व में बतलाया है, वही समझ यहाँ दृढ़ होती है)।'
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि आगम और अध्यात्म में जरा भी विरोध नहीं है क्योंकि आगम से जीव का स्वरूप जैसा है वैसा' समझकर अर्थात् जीव को सर्व नय से जानकर अध्यात्मरूप शुद्धनय द्वारा ग्रहण करते ही सम्यग्दर्शनरूप आत्मज्योति प्रगट होती है, प्राप्त होती है अर्थात् पर्याय में विशेष भाव को गौण करते ही एकरूप-अभेदरूप चित्चमत्कारमात्र ज्योति अर्थात् सामान्य भावरूप परमपारिणामिकभाव हाजिर ही है कि जो सम्यग्दर्शन का विषय है और उसमें ही 'मैंपना' करने से स्वानुभूति प्रगट हो सकती है; यह सम्यग्दर्शन की विधि है।
श्लोक ९- आचार्य शुद्धनय का अनुभव करके कहते हैं कि इन सर्व भेदों को गौण करनेवाला जो शुद्धनय (अर्थात् जीव में भेदरूप-द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रुव अथवा उदय-उपशमक्षयोपशमरूप भावों को गौण करके परमपारिणामिकभावरूप समयसाररूप शुद्धनय) का विषयभूत चैतन्य-चमत्कारमात्र (ज्ञानमात्र परमपारिणामिकभावमात्र) तेज पुंज आत्मा का अनुभव होने पर नयों की लक्ष्मी उदय को प्राप्त नहीं होती (अर्थात् सर्वनय विकल्परूप ही हैं, जबकि परमपारिणामिकभाव सर्व विशेष भावरहित होने से अर्थात् उसमें कुछ भी विकल्प न होने से उसमें नय-निक्षेप-स्व-पररूप भाव नहीं है। वहाँ मात्र एक अभेद भाव में ही मैंपना' है, इसलिए) प्रमाण अस्त को प्राप्त होता है और निक्षेपों का समूह कहाँ चला जाता है, वह हम नहीं जानते। इससे अधिक क्या कहें? द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता। (स्वानुभूति के काल में मात्र मैं का ही आनन्दवेदन होता है, वहाँ स्व-पररूप कोई द्वैत होता ही नहीं)।'
श्लोक १०-'शुद्धनय आत्मा के स्वभाव को प्रगट करता हुआ ('स्व' के भवनरूप=स्व का सहज परिणमनरूप परमपारिणामिकभावरूप प्रगट करता हुआ) उदयरूप होता है। वह आत्मस्वभाव को कैसा प्रगट करता है? (अर्थात् वह प्रगट किया हुआ आत्मस्वभाव कैसा है?) परद्रव्य, परद्रव्य के भाव तथा परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने विभाव-ऐसे परभावों से भिन्न करता है। (अर्थात् परद्रव्य तो प्रगट भिन्न है, इसलिए उनके साथ उनके लक्षण से भेदज्ञान करता है और परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने जो विभाव हैं, वे जीवरूप हैं, इसलिए उन विभावों को गौण करता है और विभावों में छुपी हुई आत्मज्योति को मुख्य करता है) और वह आत्मस्वभाव सम्पूर्णरूप से पूर्ण है-सम्पूर्ण लोकालोक को जाननेवाला है-ऐसा प्रगट करता है; (यहाँ समझना यह है कि परमपारिणामिकभावरूप आत्मा का अर्थात् ज्ञान का लक्षण -ज्ञान का स्वभाव