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दृष्टि का विषय
चार भावों को निकालकर अर्थात् गौण करके जो परमपारिणामिकभावरूप=सहज भवनरूप आत्मा शेष रहे, उसमें 'मैंपना' करते ही अनुभूति प्रगट होती है, वह अनुभूति) जिसका लक्षण है, ऐसी सत्ता से सहित है... और कैसा है? अपने और परद्रव्यों के आकारों को प्रकाशित करने की सामर्थ्य होने से (अर्थात् स्व-पर प्रकाशकपना स्वभाविक है, उसमें भी यदि पर को निकाल दोगे तो स्व ही नहीं रहेगा, क्योंकि जहाँ पर का प्रकाशन होता है वह स्व तो ज्ञान ही है आत्मा ही है। वहाँ भी प्रकाशन गौण करना है. निषेध नहीं: पर प्रकाशन गौण करते ही ज्ञान आत्मभाव ज्ञायकभाव प्राप्त होता है) जिसने समस्त रूप को प्रकाशित करनेवाला एकरूपपना प्राप्त किया है (अर्थात् जो समस्त रूप को प्रकाशित करता है, कि जिसे गौण करते ही-जो भाव ज्ञान शेष रहता है, वही ज्ञानरूप एकपना प्राप्त किया है अर्थात् ज्ञानघनपना प्राप्त किया है)। इस विशेषण से, ज्ञान अपने को ही जानता है पर को नहीं जानता ऐसे एकाकार ही माननेवाले का तथा अपने को नहीं जानता परन्तु पर को जानता है ऐसा अनेकाकार ही माननेवाले का व्यवच्छेद हुआ। (यहाँ समझना यह है कि कोई भी एकान्त मान्यता जिनमत बाह्य है और ऐसा जो कथन है कि अन्त में तो अनेकान्त भी सम्यक् एकान्त प्राप्त करने के लिये ही है-उसका हार्द ऐसा ही है कि जो पाँच भावरूप जीव का वर्णन है जो कि अनेकान्तरूप है, वह परमपारिणामिकभावरूप सम्यक् एकान्त प्राप्त करने के लिये है। नहीं कि 'आत्मा वास्तव में पर को जानता ही नहीं' अथवा 'किसी भी अपेक्षा से उस आत्मा में राग-द्वेष हैं ही नहीं' - इत्यादि एकान्त प्ररूपणाओंरूप जो कि जिनमत बाह्य ही गिनी जाती है) .....जब यह (जीव). सर्व पदार्थों के स्वभाव को प्रकाशित करने में समर्थ ऐसे केवलज्ञान को उत्पन्न करनेवाली भेदज्ञान ज्योति का उदय होने से, सर्व परद्रव्यों से छूटकर दर्शनज्ञानस्वभाव में (यहाँ सर्व गुण समझना) नियत वृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) (पर्यायरूप परमपारिणामिकभावरूप= कारणशुद्धपर्यायरूप) आत्मतत्त्व के साथ एकत्वगतरूप से वर्तता है (मात्र उसमें ही मैंपना' करता है) तब दर्शन-ज्ञान-चारित्र में (यहाँ सर्व गुण समझना) स्थित होने से युगपद स्व को एकत्वपूर्वक जानता तथा स्व-रूप से एकत्वपूर्वक परिणमता (अर्थात् मात्र सहज आत्मपरिणतिरूप =परमपारिणामिकभावरूप कारणशुद्धपर्यायरूप आत्मा में ही 'मैंपना' करता हुआ) ऐसा वह स्वसमय' (सम्यग्दर्शनी है) ऐसी प्रतीति की जाती है... मोह उसके उदय अनुसार प्रवृत्ति के आधीनपने से, दर्शन-ज्ञानस्वभाव में नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्व से (अर्थात् दृष्टि का विषय =कारणशुद्धपर्याय=परमपारिणामिकभाव से) छूटकर परद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादिभावों के साथ एकत्वगतरूप से (एकपना मानकर) (पाँच भावरूप जीव में 'मैंपना' करके) वर्तता है तब... वह परसमय है (अर्थात् मिथ्यात्वी ही है)।'