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साधक को सलाह
साधक को सलाह साधक आत्मा को सर्व प्रथम तो अपना लक्ष्य दुनिया से हटाकर 'मैं और कर्म' इतना जरूर समझ लेना आवश्यक है क्योंकि अनादि से जो मेरा परिभ्रमण चलता है, वह कर्मों के कारण ही है। वे कर्म कहीं मात्र पुद्गलरूप नहीं, वे कर्म अर्थात् मेरे ही पूर्व में किये गये भाव हैं, कि जिनके निमित्त से ये पुद्गल कर्मरूप परिणमित हुए हैं। इसलिए समझना यह है कि मुझे यदि किसी ने सबसे अधिक दुःखी किया हो तो वह मात्र और मात्र 'मैं' ही हूँ अर्थात् वह मात्र मेरे ही पूर्व में किये हुए भाव हैं, कि जिनके निमित्त से, पुद्गल कर्मरूप हुए और उन पुद्गलरूप कर्मों का उदय होने से ही मैं उनके निमित्त से परिणमनकर दु:खी हुआ।
यदि व्यवस्था ऐसी ही होवे तो मैं ऐसा कैसे विचार कर सकता हूँ कि किसी अन्य व्यक्ति ने मुझे दुःखी किया है अथवा मेरा अहित किया है, क्योंकि ऐसा विचारने से ही उस व्यक्ति के साथ के सांकलरूप सम्बन्ध में एक नयी कड़ी जुड़ती है और मेरे नये कर्म बँधते हैं कि जिनके उदय के समय फिर से इसी प्रकार नये कर्म बाँधने की सम्भावना खड़ी ही रहेगी, ऐसे अनुबन्ध को ही अनन्तानुबन्धी कषाय कहा जाता है।
दूसरों का दोष देखने से आर्तध्यान और रौद्रध्यान होता है, वह न हो इसके लिये साधक जीव को दुःख के काल में ऐसा विचारना कि 'अहो! मैंने ऐसा दुष्कृत्य पूर्व में किया था! तो उसके लिये मेरा मिच्छामि दुक्कडम् (यह है प्रतिक्रमण) उसके लिये मैं पश्चात्पूर्वक मेरी निन्दा करता हूँ और अब मैं भविष्य में ऐसे भाव कभी भी नहीं करूँ ऐसी प्रतिज्ञा (प्रत्याख्यान) करता हूँ (यह है प्रत्याख्यान) और जो व्यक्ति मुझे मेरे ऐसे भावों से (कर्मों से) छुड़ाने में निमित्त हुए हैं, वे मेरे परम उपकारी हैं, इसलिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।' ऐसा विचारने से उस व्यक्ति के प्रति नहीं रोष आयेगा या नहीं अभाव आयेगा। आयेगी तो मात्र कृतज्ञता आयेगी। और मैं आर्त्तध्यान
और रौद्रध्यान से बचकर शुभभावरूप धर्मध्यान में स्थित रहने से एक तो उस व्यक्ति के साथ की सांकल टूट जायेगी (वैर छूट जायेगा) और नये दु:खदायक कर्मों का बन्ध रूक जायेगा। इसलिए मुमुक्षु जीव को ऐसा ही विचारना चाहिए और स्वयं को तथा सबको मात्र शुद्धात्मा देखनेरूप (जैसा पूर्व अपेक्षा से समझाया है वैसा, एकान्त नहीं) भाव में रहकर तत्त्व का निर्णय और सम्यग्दर्शन ही करनेयोग्य है।