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ध्यान के विषय में
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मन को अशुभ में जाने से रोकने की ऐसी विधियाँ हैं, जैसे कि-आत्मलक्ष्य से शास्त्रों का अभ्यास, आत्मस्वरूप का चिन्तवन, छह द्रव्यों रूप लोक का चिन्तवन, नव तत्त्वों का चिन्तवन, भगवान की आज्ञा का चिन्तवन, कर्म-विपाक का चिन्तवन, कर्म की विचित्रता का चिन्तवन, लोक के स्वरूप का चिन्तवन इत्यादि वह कर सकता है। ऐसा मिथ्यात्वी जीवों का ध्यान भी शुभरूप धर्मध्यान कहलाता है, नहीं कि शुद्धरूप धर्मध्यान ; इसलिए उसे अपूर्व निर्जरा का कारण नहीं माना है क्योंकि अपूर्व निर्जरा के लिये वह ध्यान सम्यग्दर्शनसहित होना आवश्यक है अर्थात् शुद्धरूप धर्मध्यान होना आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि को इसके उपरान्त शुद्धात्मा का ध्यान मुख्य होता है कि जिससे वह गुणश्रेणी निर्जरा द्वारा गुणस्थानक आरोहण करते-करते आगे शुक्लध्यानरूप अग्नि से सर्वघाती कर्मों का नाश करके केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करता है और क्रम से सिद्धत्व को पाता है।
धर्मध्यान के अन्तर प्रकारोंरूप समस्त ध्यान के प्रकार में आत्मा ही केन्द में है. जिससे कोई भी सम्यक् ध्यान उसे ही कहा जाता है कि जिसमें आत्मा ही केन्द्र में हो और आत्मप्राप्ति ही उसका लक्ष्य हो। बहुत से ऐसा मानते हैं कि आत्मज्ञान अर्थात् सम्यग्दर्शन ध्यान के बिना होता ही नहीं तो उन्हें हम कहते हैं कि वास्तव में सम्यग्दर्शन भेदज्ञान के बिना होता ही नहीं, ध्यान के बिना तो होता है। इसलिए सम्यग्दर्शन के लिए आवश्यकता वह ध्यान नहीं परन्तु शास्त्रों से भलीभाँति निर्णय किये हुए तत्त्व का ज्ञान और सम्यग्दर्शन के विषय का ज्ञान तथा वह ज्ञान होने के बाद यथार्थ भेदज्ञान होने से ही परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा में 'मैंपना' होने से (सोहऽम होने से) ही स्वात्मानुभूतिपूर्वक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है; इसलिए आग्रह ध्यान का नहीं परन्तु यथार्थ तत्त्वनिर्णय का रखना आवश्यक है और वही करने योग्य है।
___ अन्यमति के ध्यान, जैसे कि-कोई एक बिन्दु पर एकाग्रता करावे, तो कोई श्वासोच्छ्वास पर एकाग्रता करावे अथवा तो अन्य किसी प्रकार से, परन्तु जिससे देहाध्यास ही दृढ़ होता हो ऐसे कोई भी ध्यान वास्तव में तो आर्त्तध्यानरूप ही है। ऐसे ध्यान से मन को थोड़ी सी शान्ति मिलती होने से लोग ठगा जाते हैं और उसे ही सच्चा ध्यान मानने लगते हैं। दूसरा श्वासोच्छ्वास देखने से और उसका अच्छा अभ्यास हो, उसे कषाय का उद्भव हो, उसका ज्ञान होने पर भी, स्वयं कौन है, इसका स्वात्मानुभूतिपूर्वक का ज्ञान नहीं होने से, ऐसे समस्त ही ध्यान आर्तध्यानरूप ही परिणमते हैं। उस आर्तध्यान का फल है तिर्यंच गति, जबकि क्रोध, मान, माया-कपटरूप ध्यान, वह रौद्रध्यान है और उसका फल है नरकगति; धर्मध्यान के अन्तर प्रकारों में आत्मा ही केन्द्र में होने से ही उसे सम्यक्ध्यान कहा जाता है।