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. जीव को चार संज्ञा/संस्कार-आहार, मैथुन, परिग्रह
और भय अनादि से है; इसलिए उनके विचार सहज होते हैं। वैसे विचारों से जिन्हें छुटकारा चाहिए हो, उन्हें स्वयं की उनकी ओर की रुचि तलाशना अर्थात् जब तक ये संज्ञाएँ रुचती हैं अर्थात् इनमें सुख भासित होता है। जैसे कि कुत्ते को हड्डी चूसने देने पर उसके जबड़े में घिसने से खून निकलता है कि जिसे वह ऐसा समझता है कि खून हड्डी में से निकलता है और इसलिए उसे उसका आनंद होता है कि जो मात्र उसका भ्रम ही है। इस प्रकार जब तक यह आहार, मैथुन, परिग्रह और भय अर्थात् बलवान का डर और कमजोर को डराना/दबाना रुचता है, वहाँ तक उस जीव को उसके विचार सहज होते हैं और इसलिए उसके संसार का अंत नहीं होता। इस कारण मोक्षेच्छु को इस अनादि के उल्टे संस्कारों को मूल से निकालने का पुरुषार्थ करने योग्य है, जिसके लिए सर्व प्रथम इन संज्ञाओं के प्रति आदर छोड़ना आवश्यक है। इसलिए सर्व पुरुषार्थ उनके प्रति वैराग्य हो, इसके लिए ही लगाना आवश्यक है कि जिसके लिए सवाँचन और
सच्ची समझ आवश्यक है। • आपको क्या रुचता है? यह है आत्मप्राप्ति का बैरोमीटर।
नित्य चिंतन कणिकाएँ * ४३