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एकांत शुद्धात्मा को शोधते हैं और मानते हैं, वे मात्र भ्रमरूप ही परिणमते हैं। वैसा एकांत शुद्धात्मा कार्यकारी नहीं है क्योंकि वैसा एकांत शुद्धात्मा प्राप्त ही नहीं होता और इससे वे जीव, भ्रम में ही रहकर अनंत संसार बढ़ाकर अनंत दु:खों को प्राप्त करते हैं।
सम्यग्दर्शन के लिए अन्य प्रकार से कहा जा सकता है कि जैसे किसी महल के झरोखे में से निहारता पुरुष, स्वयं ही ज्ञेयों को निहारता है, न कि झरोखा; उसी प्रकार आत्मा, झरोखेरूपी आँखों से ज्ञेयों को निहारता है, वह ज्ञायक-जाननेवाला स्वयं ही है. न कि आँखें और वही मैं हँ, सोहम, वह ज्ञानमात्रस्वरूप ही मैं हूँ अर्थात् मैं मात्र देखने-जाननेवाला ज्ञायक-ज्ञानमात्र शुद्धात्मा हूँ ऐसी भावना करना और ऐसा ही अनुभव करना।
जिस समय मति और श्रुतज्ञान, इन दोनों में से किसी एक ज्ञान द्वारा स्वात्मानुभूति होती है, उस समय ये दोनों ज्ञान भी अतीन्द्रिय स्वात्मा को प्रत्यक्ष करते हैं इसलिए ये दोनों ज्ञान भी स्वात्मानुभूति के समय में प्रत्यक्षरूप हैं, परंतु परोक्ष नहीं। अर्थात् सम्यग्दर्शन, वह अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी और दर्शनमोह के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से होता है, परंतु उसके साथ ही नियम से सम्यग्ज्ञानरूप शुद्धोपयोग उत्पन्न होता होने से उस शुद्धोपयोग को ही स्वात्मानुभूति कहा जाता है कि जो ज्ञानावरणीय के क्षयोपशमरूप होती है और वह शुद्धोपयोग
१४ * सुखी होने की चाबी