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देखने-जानने के लक्षण से आत्मा को ग्रहण करते ही पुद्गलमात्र के साथ भेदज्ञान हो जाता है और पश्चात् उससे आगे बढ़ने पर, जीव के जो उदयादि भाव, कर्म की अपेक्षा से कहे हैं, और कर्म पुद्गलरूप ही होने से, उन उदयादिक भावों को भी पुद्गल के खाते में डालकर, प्रज्ञारूप बुद्धि से शुद्धात्मा को ग्रहण करना, अर्थात् उन उदयादि भावों को जीव में से गौण करते ही जो जीवभाव शेष रहता है, उसे ही परमपारिणामिकभाव, शुद्धात्मा, स्वभावभाव, शुद्ध चैतन्यभाव, कारण- परमात्मा, द्रव्यात्मा, सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय ) इत्यादि अनेक नामों से पहचाना जाता है और उसके अनुभव से ही निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है। इस भाव की अपेक्षा से ही 'सर्व जीव स्वभाव से ही सिद्धसमान हैं' ऐसा कहा जाता है। इसके अनुभव को ही निर्विकल्प अनुभूति कहा जाता है, क्योंकि वह सामान्यभावस्वरूप होने से उसमें किसी विकल्प को स्थान ही नहीं है। भेदज्ञान की विधि ऐसी है । हम तो इसी शुद्धात्मा का अनुभव करते हैं और परम सुख का अनुभव करते हैं। अत: आप भी दृष्टि बदलकर इसे ही शुद्ध देखो और आप भी इसका अर्थात् सत्-चित्-आनंदस्वरूप का आनंद लो - ऐसी हमारी प्रार्थना है। यही सम्यग्दर्शन का स्वरूप है और यही सम्यग्दर्शन की विधि है, परंतु जो यहाँ बतायी गई युक्ति अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय न मानकर अन्यथा ग्रहण करते हैं, वे शुद्ध नयाभासरूप सुखी होने की चाबी १३