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छत की नक्काशी का नयनरम्य दृश्य वैसे भी राजस्थान तो शिल्प-स्थापत्य की विपुलता व विविधता से भरा-भरा प्रदेश है। यहाँ के कतिपय कलापूर्ण स्थापत्य तो विश्व के विख्यात शिल्पों में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करें, वैसे अद्भूत है। इन सब में गिरिराज आबू के जिनालय तो बेजोड़ है ही, फिर भी विशालता व कलात्मकता के संगम की द्रष्टि से राणकपुर का यह जिनमन्दिर उन सब में, निःसंदेह, श्रेष्ठतर बना रहे ऐसा है; साथ ही साथ भारतीय शिल्पकला का भी यह बेजोड़ नमूना है। और भारतीय वास्तुविद्या कितनी उच्च कोटि की व बढ-चढकर थी और इस देश के स्थपति कैसे सिद्धहस्त थे, इस बात का यह तीर्थ प्रत्यक्ष प्रमाण है।
इस मन्दिर की निर्माण-कथा के चार मुख्य स्तंभ है: आचार्य सोमसुन्दरसूरि, मंत्री धरणाशाह, पोरवाल, राणा कुंभा और शिल्पी देपा या देपाक । इन चारों की भावनारूप चार स्तंभों के आधार पर शिल्पकला के सौन्दर्य की पराकाष्ठा के समान इस अद्भूत जिनमन्दिर का निर्माण संभव हुआ था।
आचार्य सोमसुन्दरसूरि विक्रम की पन्द्रहवीं सदी के एक प्रभावशाली आचार्य थे। श्रेष्ठी धरणाशाह राणकपुर के समीपस्थ नांदिया गाँव के निवासी थे। बाद में वे मालगढ़ में जा बसे थे। इनके पिता का नाम श्रेष्ठी कुरपाल, माता का नाम कामलदे, और बड़े भाई का नाम रत्नाशाह था। वे पोरवालवंशीय थे।
तत्कालीन प्रभावक पुरुष जैन आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरिजी के संपर्क से धरणाशाह विशेष धर्मपरायण बने और कालक्रम से उनकी धर्मभावना में ऐसी अभिवृद्धि होती गई कि, केवल बत्तीस वर्ष की युवावस्था में ही उन्होने, तीर्थाधिराज शत्रुजय में, आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत जैसे कठिन व्रत को अंगीकार किया था। अपनी कुशाग्र बुद्धि, कार्यशक्ति और राजनैतिक क्षमता के बल पर वे मेवाड़ के राणा कुंभा के मंत्री बने थे।