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________________ वि.सं. १४४६ मे शुरू किये गए इस मन्दिर का निर्माणकार्य जब ५० साल बीत जाने पर भी पूरा न हो सका, तब श्रेष्ठी धरणाशाह ने अपनी वृद्धावस्था का विचार करके, मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने का निश्चय किया। यह प्रतिष्ठा वि.सं. १४९६ की साल में हो सकी। मन्दिर के मुख्य शिलालेख में यही साल लिखी हुई है। यह प्रतिष्ठा आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरिजी के हाथों से हुई थी। इस प्रकार लगातार पचास वर्षों तक मन्दिरनिर्माण का कार्य चलता रहा; फलस्वरूप मंत्री धरणाशाह की भावना को हू-ब-हू प्रस्तुत करता, देवविमान सद्दश मनोहर जिनमंदिर का इस धरती पर अवतरण हुआ । प्रचलित किंवदंती के अनुसार इस मन्दिर के निर्माण में निन्यानवे लाख रुपये खर्च हुए थे। ऐसा कहा जाता है की इस मन्दिर की नींव में सात प्रकार की धातुएं एवं कस्तूरी जैसी मूल्यवान चीजें डलवा कर शिल्पी देपा ने धरणाशाह की भावना तथा उदारता की कसौटी की थी। ___ यह मन्दिर इतना विशाल और ऊँचा होने पर भी इसमें नजर आती सप्रमाणता, मोती, पन्ने, हीरे, पुखराज और नीलम की तरह जगह-जगह बिखरी हुई शिल्पसमृद्धि विविधप्रकार की नक्काशी से सुशोभित अनेकानेक तोरण और उन्नत स्तंभ, आकाश में निराली छटा बिखेरतें शिखरों की विविधताकला की यह सब समृद्धि मानो मुखरित बनकर यात्री को मंत्रमुग्धबना देती है। साथ ही मन्दिर के निर्माता के द्वारा दिखाये गये असाधारण कलाकौशल्य के लिये उसके अंत:करण में आदर और अहोभाव पैदा करती है। छत की महीन नक्काशी PEARLIE PREM
SR No.009384
Book TitleRanakpur Mahatirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandji Kalyanji Pedhi
PublisherAnandji Kalyanji Pedhi
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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