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ध्यान धारण से चित्त वृत्ति को जिस विषय में लगाया गया हो, उसी विषय में उसे निरन्तर लगाए रखने को ध्यान कहते हैं। मन, वचन और काया की स्थिरता को भी ध्यान कहते हैं। चित्त विक्षेप का त्याग करना ध्यान है, एकाग्र चिन्तन ध्यान होता है। प्रत्येक इन्द्रिय पर ध्यान का अभ्यास करने से अतीन्द्रिय ज्ञान होने लगता है तथा साधक बाह्य वस्तुओं के आलंबन से उनके विषयों का आनन्द ले सकता है। अलग-अलग वर्ण गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श पर ध्यान करने से शरीर में उनके अभावों की पूर्ति होने लगती है तथा शरीर शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक रूप से संतुलित होने लगता है अर्थात् पूर्ण स्वस्थ एवं रोग मुक्त बन सकता है तथा शरीर शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक रूप से संतुलित होने लगता है अर्थात् पूर्ण स्वस्थ एवं रोग मुक्त बन सकता है। रंग चिकित्सा में शरीर में रंगों की कमी को पूरा करने की एक विधि संबंधित रंग का ध्यान कर रोगोपचार की भी होती है। इसी प्रकार शरीर में कमी वाले शब्द, गंध, रस, स्पर्श का ध्यान करने से उसकी पूर्ति की जा सकती है। ध्वनि . चिकित्सा, स्वाद चिकित्सा, गंध चिकित्सा, स्पर्श चिकित्साएँ आदि इसी सिद्धान्त पर कार्य करती हैं। नासाग्र पर ध्यान करने से साधक का शक्ति केन्द्र (मूलधार चक्र), जागृत होने लगता है एवं वृत्तियों का परिष्कार होने लगता है। जैनागमों में भगवान महावीर द्वारा नासाग्र पर ध्यान करने का अनेक स्थानों पर वर्णन मिलता है।
ध्यान में मन के विकारों का नाश हो जाता है और सात्विक गुणों का विकास होता है। जैन आगमों में चार प्रकार के ध्यान का उल्लेख मिलता है। आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान। प्रथम दो ध्यान, अशुभ एवं त्याज्या होते हैं। जिस ध्यान में अभावों के चिन्तन से चिन्ता होती है, उस ध्यान को आर्त्तध्यान तथा क्रूर चित्त द्वारा किया गया ध्यान रौद्र ध्यान की श्रेणी में आता है। अंतिम दो ध्यान धर्म ध्यान और शुक्ल शुभ होते हैं। धर्म ध्यान से ध्यानी आत्मा स्वभाव में रमण करने लगता है तथा शुक्ल ध्यान से राग एवं द्वेष को जीतने की क्षमता प्राप्त होती है।। यह ध्यान आत्मा के शुद्ध स्वरूप की सहज अनुभूति कराता है। अन्तर्मुखी बनने, आत्मा से साक्षात्कार को ही ध्यान समझा जाता है। ध्यान शरीर, मन एवं मस्तिष्क को स्वस्थ रखने का अच्छा माध्यम है। ध्यान से आभा मण्डल शुद्ध होता है,, हानिकारक तरंगें दूर होती हैं। ध्यान की साधना शांत, एकान्त, स्वच्छ एवं निश्चित स्थान पर निश्चित समय करने से ज्यादा लाभ होता है। ध्यान के लिए मौन आवश्यक होता है। पहले शरीर की स्थिरता, फिर दृढ़ता और धैर्य बिना, ध्यान संभव नहीं हो सकता।
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