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दूर होता है। ज्ञान मुद्रा अधिक से अधिक समय तक की जा सकती है। हस्त रेखा विज्ञान की दृष्टि से ज्ञानं मुद्रा करने में जीवन रेखा तथा बुद्ध ग्रह संबंधी दोष दूर . होते हैं तथा अविकसित शुक्र पर्वत का भी विकास संभव होता है।
जब ज्ञान मुद्रा में दोनों हथेलियाँ कन्धे के बराबर सामने की तरफ होती हैं तो. व्यक्ति में निर्भयता आने से उस मुद्रा को अभय मुद्रा कहते हैं। ..
जब दायाँ हाथ हृदय के पास और बायाँ घुटने के ऊपर रख जब ज्ञान मुद्रा की जाती है तो उसे 'योग मुद्रा अथवा वैराग्य मुद्रा कहते हैं। भगवान गौतम की अधिकांश मूर्तियाँ इस आसन में ही देखने को मिलती है।
. वायु मुद्रा अंगुष्ठ से तर्जनी को दबाने से वायु मुद्रा बनती है शरीर में वायु के बढ़ने से होने वाले रोगों को शमन करती है, जैसे शरीर का कम्पन्न, जोड़ों का दर्द, गंठिया. रीढ़ की हड्डी संबंधी दर्द, वात राग, लकवा आदि के समय करने से रोगों में राहत मिलती है।
मुँह टेढ़ा पड़ जाने, गर्दन की जकड़न होने तथा गर्दन संबंधी अन्य रोगों में वायु मुद्रा का प्रयोग लाभ दायक होता है। वायु मुद्रा करने से हाथ के मध्य में वात नहीं नाड़ी में बन्ध लग जाता है। वात जन्य गर्दन के दर्द में वायु मुद्रा लगाने के बाद हाथ की कलाई को दायां-बायां घुमाने से वात नाड़ी में खट-खट की ध्वनि होती है, जो उस कलाई को दूसरे हाथ से पकड़ कर वात नाड़ी पर अंगूठे से हल्का दबाव देते हुए, गोलाकार दाहिने बांये थोड़ी देर घुमाने के पश्चात बंद हो । जाती है। उसके साथ ही गर्दन के दर्द मे आराम होने लगता है। यदि जकड़न और ‘दर्द गर्दन के बायी तरफ हो तो बांयी कलाई को घुमाना चाहिए और यदि गर्दन के दाहिनी तरफ दर्द हो तो दाहिनी कलाइ को घुमाना चाहिये। परन्तु पूरी गर्दन में दर्द हो तो दोनों कलाईयों को एक के बाद एक घुमाना चाहिये। इसी प्रक्रिया से मुँह का टेढ़ापन भी ठीक हो जाता हैं।
आकाश मुद्रा अंगुष्ठे के ऊपरी पौर को मध्यमा के ऊपरी पौर से स्पर्श करने से आकाश मुद्रा बनती है। इससे अग्नि तत्त्व सन्तुलित होता है। हड्डियां मजबूत होती हैं। मुख कां तेज और कान्ति सुधरती है। विचार क्षमता बढती है, मानसिक संकीर्णता. कम होती है। हृदय रोग में भी यह मुद्रा प्रभावकारी होती है। हस्त रेखा विज्ञान की दृष्टि से शनि ग्रह से संबंध रखने वाले रोगों में यह मुद्रा लाभकारी होती है।
शून्य मुद्रा यह मुद्रा अंगुष्ठ से मध्यमा. को दबा कर बाकी अंगुलियाँ सीधी रखने से
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