________________
तृट्कासदाहमूर्च्छाद्या व्याधयोऽत्यग्निसम्भवाः । तमत्यग्नि गुरूस्निग्धमन्दसान्द्रहिमस्थिरैः ।। अन्नपानैर्नयेच्छान्ति दीप्तमग्निमिवाम्बुभिः । मुहुर्मुहुरजीर्णेऽपि भोज्यान्यस्योपहारयेत् ।। निरिन्धनोऽन्तरं लब्ध्वा यथैनं न विपादयेत् । अर्थ : जब कफ के क्षीण हो जाने पर पित्त अपने स्थान में स्थित वायु के साथ बढ़कर अग्नि को बढ़ाता है तब वह वायुयुक्त अग्नि अन्न को शीघ्र ही पचाकर सभी धातुओं तथा ओज को निकालकर मार डालता है। इस समय भोजन करने से मनुष्य स्वस्थ रहता है और भोजन के पच जाने पर कष्ट युक्त हो जाता है और प्यास, कास, दाह, मूर्च्छा आदि रोग अधिक अग्नि से उत्पन्न हो जाते हैं । उस प्रदुद्ध अग्नि को गुरू, स्निग्ध, मन्द्र, सान्द्र, हिम, तथा स्थिर अन्न-पान से शान्त करें। जेसे प्रदीप्त अग्नि को जल शान्त करता है । इस स्थिति में अजीर्ण रहने पर भी बार-बार भोजन दें, जिससे आहार रूपी ईन्धन के न मिलने से रोगी को न मार दे।
अत्यग्नि रोगी की चिकित्साकृशरां पायसं स्निग्धं पैष्टिकं गुड़वैकृतम् ।। अश्नीयादौदकानूपपिशितानि भृतानि च । मत्स्यान्विशेषतः श्लक्ष्णान् स्थिरतोयचराश्च ये ।। आविक सुभृतं मांसमद्यादत्यग्निवारणम् । पयः सहमधूच्छिष्टं घृतं वा तृषितः पिबेत् । ।
गोधूमचूर्ण पयसा बहुसर्पिःपरिपलुतम् । आनूपरसंयुक्तान्वा स्नेहांस्तैलविवर्जितान् ।। श्यामात्रवृद्विपक्वं वा पयो दद्याद्विरेचनम् । असकृत्पित्तहरणं पायसं प्रतिभोजनम् ।। यत्किञ्चिद्गुरू मेद्यं च श्लेष्मकारि च भोजनम् । सर्व तदत्यग्निहितं भुक्त्वा च स्वपनं दिवा । ।
अर्थ : जिसकी जाठराग्नि अधिक बढ़ी हो वह खिचड़ी, पायस (खीर - रबड़ी आदि) स्निग्ध पौष्टिक तथा गुड़ के बने पदार्थ गुड़ राब आदि खायें और जल में रहने यह अत्यधिक प्रबुद्ध जाठराग्नि को शान्त करने वाले हैं। प्यास लगने पर सोम के साथ दूध या घृत पान करे। गेहूँ की आटा का अधिक घी मिलाकर बनाया हुआ हलुआ खायेंः या बिना अन्य स्नेहों को मिलाकर पान करे अथवा श्यामा निशोथ के साथ पकाये हुए दूध को विरेचन के लिए दे ।
65