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________________ - लवणोत्तमवह्निकलिगयवांश्चिरबिल्वमहापिचुमन्दयुतान्। पिब सप्तदिनं मथितालुडितान् ।। यदि मर्दितुमिच्छसि पायुरूहान्।। अर्थ : अर्श रोग को नष्ट करने की इच्छा करने वाला व्यक्ति सेन्धानमक, चित्रक, इन्द्रजव, करंज्ज तथा वयकान समभाग इन सबका चूर्ण मट्ठा में मिलाकर सात दिन तक पान करे। अर्श की संक्षिप्त चिकित्साशुष्केशु भल्लातकमग्रयमुक्तं . भैषज्यमार्टेषु तु वत्सकत्वक् । सर्वेषु सर्वर्तुषु कालशेय मर्श:सु बल्यं च मलापहं च।। । अर्थ : शुष्क अर्थों में शुद्ध भल्लातक का प्रयोग उत्तम है। आर्द्र अर्श में कैरिया की छाल का प्रयोग प्रशस्त है और सभी प्रकार के अर्श में तथा सभी ऋतुवों में मट्टा का प्रयोग बलकारक तथा दोषनाशक है। अर्श के चिकित्सा सूत्र- . . भित्त्वा विबन्धाननुलोमनाय . . . यन्मारूतस्याऽग्निबलाय यच्च । . तदन्नपानौषधमर्शसेन- .. . सेव्यं विवर्ण्य विपरीतमस्मात् ।। अर्थ : अर्श का रोगी मल को भेदन कर वायु को अनुलोमन करने वाले तथा जाठराग्नि के बल को बढ़ाने वाले जो अन्न, पान् तथा औषध हैं.उनको सेवन करे और इसके विपरीत अन्न-पान तथा औषध का त्याग करे। . अर्श आदि रोग में अग्नि रक्तार्श का निर्देश अशोऽतिसारग्रहणीविकाराः। . ... ... . सन्नेऽनले सन्ति न सन्ति दीप्ते। . रक्षेदतसतेषु विशेषतोऽग्निम्।। . अर्थ : अर्श अतिसार तथा ग्रहणी रोग के निदान आपस में एक दूसरे से मिले जुले होते हैं। ये सब रोग जाठराग्नि के मन्द होने पर होते हैं तथा जाठराग्नि प्रदीप्त होने पर नहीं होते हैं या होने पर भी नष्ट हो जाते हैं। अतः इन पूर्वोक्त रोगों में विशेष कर अग्नि की रक्षा करनी चाहिए। 00000
SR No.009378
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 03 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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