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________________ कशाय) दोषशेषस्य पाचनः शमनो यथा ।। तिक्तः पित्ते विशेषेण प्रयोज्यः कटुकः कफे । पित्तश्लेष्महरत्वेऽपि कषायस्तु न शस्यते ।। नवज्वरे मलस्तम्भात्कषायो विषमज्वरम् । कुरुतेऽरूचिहृल्लासहिध्माऽऽध्मानादिकानपि । । अर्थ : लंघन आदि क्रियाओं से ज्वरकारी दोषों के पक जाने पर शेष दोषों ' को पचाने के लिए तथा शान्त करने के लिए कषाय प्रशस्त होता है। विशेषकर तिक्त रसवाले द्रव्य पित्त ज्वर में और कटु रस वाले द्रव्य कफ ज्वर में प्रयोग करे । कषाय रस के पित्त तथा कफं को दूर करने वाले होने पर भी नवीन ज्वर में प्रशस्त नहीं है। क्योंकि कषाय रस प्रधान द्रव्य मलों का अवरोध करने से विषम ज्वर उत्पन्न करता है और भोजन में अरुचि, उबकाई, हिचकी, तथा आध्मान आदि को भी उत्पन्न करता है । विश्लेषण : नव ज्वर में कषाय के साथ दिन में सोना, स्नान, उबटन लगाना, मैथुन, क्रोध, अधिक हवा में बैठना तथा व्यायाम नहीं करना चाहिए। अर्थ : ज्वर नाशक कषाय है। उन्हें बचाने के लिए दिया जाता है किन्तु कषाय रसवाले द्रव्य का क्वाथ नहीं दिया जाता है। क्योंकि मलों की रूकावट कर चिरकारी विषम ज्वर को उत्पन्न करता है और दोष धातुओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। ज्वर में औषध देने का समयसप्ताहादौषधं केचिदाहुरन्ये दशाहतः । केंचिल्लघ्वन्नभुक्तस्य योज्यमामोल्बणे न तु ।। तीव्र ज्वरपरीतस्य दोषवेगादयो यतः । दोषेऽथवाऽतिनिचिते तन्द्रास्तैमित्यकारिणि ।। अपच्यमानं भैषज्यं भूयो ज्वलयति ज्वरम् । अर्थ : कुछ आचार्यो का मत है कि ज्वर लगने के सात दिन के बाद ज्वर नाशक औषध देना चाहिए और कुछ आचार्यो का मत है कि दश दिन के बाद . औषध देना चाहिए । कुछ आचार्यों का सिद्धान्त है कि हल्का अन्न खाने के बाद औषध देना चाहिए किन्तु तीनों सिद्धान्त में आम दोष की प्रधानता रहने पर ज्वर नाशक औषध नहीं देना चाहिए। क्योंकि तीव्र ज्वर होने पर दोषों के वेग उभर जाते हैं । अथवा दोषों के अधिक रूप में संचित होने पर तन्द्रा तथा स्वमित्य करने वाले दोष होते हैं । उस समय यदि ज्वरनाशक औषध 15
SR No.009377
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 02 Bimariyo ko Thik Karne ke Aayurvedik Nuskhe 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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