________________
मद्यक्षीणस्य हिक्षीणं क्षीरमाश्वेव पुष्यति । । ओजस्तुल्यं गुणैः सर्वेर्विपरीतं च मद्यतः । अर्थ : पूर्वोक्त प्रकार से संशोधन तथा शमन आदि क्रियाओं को करने पर भी यदि मदात्यय न शान्त हो और कफ के क्षीण होने तथा दुर्बलता एवं शरीर के हल्का होने पर उस वात-पित्ताधिक मद्य विदग्ध रोगी के लिए जैसे गर्मी से झुलसे हुए पेड़ के लिए वर्षा लाभदायक होती है वैसे हो फलदायक होता है। मद्य पीने से क्षीण रोगी के अगं को दूध शीघ्र ही पुष्ट करता है। क्योंकि मद्य के दश गुणों के विपरीत दुध के सभी दश गुणों के समान गुण वाला ओज है।
दुग्ध पान से निवृत्त मदात्यय का विविध उपचारपयसा विजिते रोगे बले जाते निवर्तयेत् ॥
क्षीरप्रयोगं मद्यं च क्रमेणाल्पाल्पमाचरेत् । न बिक्षयध्वंसकोत्थैः स्पृशेतोपद्रवैर्यथा । । तयोस्तु स्याद्वृतं क्ष्मीरं बस्तयों बृंहणाः शिवाः । अभ्यगंद्वर्तनस्नानमन्नपानं न वातजित् ।।
अर्थ : दुग्ध पान से मदात्यय के निवृत्त हो जाने पर तथा बल के आ जाने पर दूध का प्रयोग छोड देना चाहिए और थोड़ा-थोड़ा क्रमशः मद्यपान प्रारम्भ करते हुए छोड़ देना चाहिए । किन्तु मद्य का प्रयोग इतना ही करना चाहिए जितने से विक्षम तथा ध्वंसक रोग न हो। विक्षय तथा ध्वंसक रोग की शान्ति घृत, क्षीर, पुष्टिकारक वस्तियाँ, अभ्यंग, उबटन, स्नान ता वात शामक आहार-विहार तथा पान से होता है। विश्लेषण : : मद्यपान छोड़ने के बाद सहसा अधिक मद्यं पान करने से विक्षय तथा ध्वंसक रोग होता है। अतः दूध से शान्त होने पर थोड़ा-थोड़ा मद्य पीते हुए इसे त्याग कर देना चाहिए ।
युक्तिपूर्वक मद्यपान की प्रशंसायुक्तमद्यस्य मद्योत्थो न व्याधिरूपजायते । अतोऽस्य वक्ष्यते योगो यः सुखायैव केवलम् || आश्विनं या महत्तेजो बलं सारस्वतं च या । दधात्यैन्द्रं च या वीर्य प्रभावं वैष्णवं च या । ।
अस्त्रं मकरकेतोर्या पुरुषार्थो बलस्य या । सौत्रामण्यां द्विजमुखे या हुताशे च हूयते ।।
या सर्वौषधिसम्पूर्णान्मथ्यमानात्सुरासुरैः । महोदधेः समुद्भूता श्री - शशाडकऽऽमृतैः सह । । मधु-माधव- मैरेय-सीधु - गौडाऽऽसवादिभिः । 117