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________________ 5 कषाय और मधुर होने से रक्त और पित को बढ़ाने वाली तथा उष्ण वीर्य होने दृष्टिनाशक होती है, शुक्राश्मरी अथवा सामान्य सभी प्रकार के अश्मरी (पथरी) रोग नाशक होती है प्रतिदिन इसके दाल का सेवन अथचा चूर्ण बनाकर दूध के साथ या गरम जल से लेने से अश्मरी रोग में विशेष लाभ होता है। निष्पावो वातपित्तास्रस्तन्यमूत्रकरो गुरुः ।। सरो विदाही दृक्शुक्रकफशोफविषापहः । अर्थ : सेम का बीज वात, पित्त, रक्त, दुग्ध और मूत्र का वर्द्धक है गुरू, भेदक और विदाही होता है एवं दृष्टि, शुक्र, कफ एवं शोथ रोग और विष विकार को दूर करता है । विश्लेषण : यद्यपि इसका विपाक अम्ल होता है जिसका उल्लेख यहां नहीं किया गया है उसका ग्रहण विदाही शब्द से हो जाता है चरक ने इसका प्रयोग उदावर्त रोग में उत्तम माना है । माषः स्निग्धो बलश्लेष्ममलपितकरः सरः । गुरुणोऽनिलहा स्वादुः शुक्रवृद्धिविरेककृत् ।। अर्थ : : उड़द या उरद-यह स्निग्ध बलवर्द्धक तथा कफ, पुरीष और पित्त का वर्द्धक होता है, भेदक, गुरू, उष्णवीर्य, वातनाशक रस में मधुर, शुक्रवर्द्धक और शुक्र को निकालने वाला होता है। फलानि माषवद्विद्यात्काकाण्डोलात्मगुप्तयोः । । अर्थ : काकण्डोला और केंवाच के फलों का गुण उरद के समान समझना चाहिये । विश्लेषण : केंवाच दो प्रकार का होता है । (1) में शूक नहीं होता है- अर्थात् उसके लगने से शरीर में खुजुली नहीं होती है और दूसरे के स्पर्श से खजुली होती है। जिसके स्पर्श से खुजुली नहीं होती है उसे काकाण्डोला कहते है और जिसके स्पर्श से खुजुली होती है, उसे आत्मगुप्ता कहते हैं । उष्णस्त्वच्यों हिमः स्पर्शे केश्यो बल्यस्तिलो गुरुः । अल्पमूत्र कटुः पार्क मेधाग्निकफपितकृत् ।। अर्थ : तिल वीर्य में उष्ण त्वचा के लिए लाभकर स्पर्श में शीतल बालों के लिए हितकर, बलवर्द्धक और गुरु होता है, अल्पमात्रा में मूत्रनिःसारक, यह पाक में कटु स्मरणशक्ति जठराग्नि, कफ एवं पित को करने वाला होता है । .. विश्लेषण : यह कृष्ण और श्वेत भेद से दो तरह का होता है काला तिल गुण में उतम और श्वेत तिल गुण में अधम होता है, यहां तिल का अन्तः प्रयोग 88
SR No.009376
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 01 Dincharya Rutucharya ke Aadhar Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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