________________
के लिए हितकारी है। जीर्णज्वर, मूत्रकृचछ और रक्तपित्त रोग को नाश करने वाला है। विश्लेषण : यहाँ सामान्यतः सभी दुग्धों का गुण बताकर सबसे उत्तम गौ के दुग्ध का गुण बताया गया है। सामान्यतः गुण के निर्देश में प्रायः शब्द पढ़ गया है प्रायः का तात्पर्य यह है कि दूध आठ प्रकार का होता है जिसमें गौ, भैंस, बकरी, ऊँट, स्त्री, भेड़, हाथी और एकशफ अर्थात् घोड़ी और गदही इन्ही आठों का दूध चिकित्सा क्षेत्र में प्रयुक्त होता है इन सभी का दूध इन ऊपर बताये हुये गुणों से युक्त नहीं होता जैसे-ऊँट का दूध कुछ नमकीन उष्ण और रूक्ष होता है। बकरी का दूध हल्का होता है भेड़ का दूध उष्ण होता है । धोड़ी गदही का दूध - अल्प, लवण और उष्ण होता है। इसीलिए यहाँ प्रायः शब्द को निर्देश है दूध को रस वियाक में मधुर माना है संक्षेप में सभी मधुर विषाक में भी मधुर होते हैं जैसा कि मधुरों मधुरं पच्यते कहा है । किन्तु चावल मधुर और गुरू होता है उसका विपाक अम्ल होता है किन्तु दूध गुरू और मधुर होते हुये भी इसका विपाक मधुर ही होता है इसे स्पष्ट करने के लिए "स्वादुपाकरस" बताया है । धातुवर्धक बताते हुये इसे वृष्य बताया है इसका तात्पर्य यह है रसादि सम्पूर्ण धातुओं को बढ़ाते हुये विशेष रूप से यह शुक्र वर्धक है। सभी दुग्ध गुणों में स्निग्ध होते हैं पर स्निग्ध ाता उत्पन्न करने की शक्ति भैंस के दूध और बकरी के दूध में बहुत ही अल्प होती है। ऊँट, घोड़ी, गदही के दूध में भी स्निग्धता उत्पन्न करने की शक्ति कम होती है। इन्ही सब बातों को लेकर यहाँ प्रायः शब्द का प्रयोग किया गया है ! गौ के दूग्ध का विशेष गुण वर्णन करते हुये प्रायः नहीं बताया है । यद्यपि जीवनीय, मेध्य आदि गुण कफ का ही है। अतः जीवनीय रसायन आदि गोदुग्ध का विशेष गुण होते हुये कफ वर्धक गुण नहीं है। इसलिए श्वास, कास रोगों में इसका प्रयोग हितकर बताया हैं । यह भी स्पष्ट किया है कि यह इन रोगों को नष्ट नहीं करता है पर हानि भी नहीं करता है । जीवनीय गुणों के कारण इन रोगों में जीवनीय शक्ति का विस्तार करता है । और जीर्णज्वर, मूत्रकृच्छ् और रक्तपित्त को नष्ट करता है ।
मेधाशक्ति बढ़ाने के इच्छुक व्यक्तियों अर्थात् बुद्धिजीवी व्यक्तियों के लिए गौ का दुग्ध विशेष लाभकर होता है। यहाँ केवल सामान्य गौ के दूध का वर्णन किया गया है पर अन्यत्र वर्णभेद से गौवों का दुग्ध भिन्न-भिन्न गुणयुक्त होता है ऐसा बताया है । यथा
कृष्णाया गोर्भवेत् दुग्धं वातहारि गुणाधिकम् । पीताया हरते पित्तं तथा वातहरं भवेत ।। श्लेष्मल गुरुशुक्लाया रक्तचित्रा च बातहृत |
62