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थोड़ा भोजन करना चाहिए। मल-मूत्र आदि को जबरदस्ती निकालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यदि मल-मूत्र बाहर निकलने का वेग आये, तो उन्हें रोकना नहीं चाहिए। मल-मूत्र को रोककर कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। यदि शरीर में कोई साध्य रोग हो जाये तो पहले चिकित्सा के द्वारा इस रोग को ठीक किये बिना दूसरे कार्य नहीं करने चाहिए। विश्लेषण : किसी स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थय नियमित रूप से बना रहे, इसके लिये दिशा निर्देश दिये गये हैं। जैसे-पूर्व में किये गये भोजन के समुचित पाचन के बाद ही दुबारा भोजन करना। शरीर के सभी रोगों का कारण पाचन की विकृति होती है। जब भोजन पचने के बाद फिर से शरीर . के लिये हितकर और नपा-तुला (मिलकर) भोजन करने से पाचन की विकृति होने की संभावना नहीं होती है। किसी भी स्थिति में मल-मूत्र-छींक आदि को जबरदस्ती नहीं निकालना चाहिए। इससे शरीर में वायु (वात) की विकृति आती है। इसके साथ ही स्थानीय विकृति भी आ जाती है। इसके विपरीत मल-मूत्र-छींक जो स्वाभाविक रीति से निकलना चाहते हैं तो उन्हे रोकना नहीं चाहिए। इन्हें रोकने से अपान वायु विकृत होती है। इस अपान वायु की विकृति से ही हृदय रोग, उदर रोग आदि होते है। प्रथम अवस्था मे सभी रोग साध्य होते हैं, अर्थात उनकी चिकित्सा की जा सकती है। यदि प्रथम अवस्था में ही रोगों की चिकित्सा नहीं की जाय तो फिर कष्टकारक हो जाते हैं। बाद में फिर मृत्यू का कारण बनते हैं।
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः।
सुखं च न बिना धर्मात्तस्माद्वर्मपरो भवेत्।। अर्थ : (सुख का कारण)- सभी प्राणी सभी कार्य सुख के लिये करते हैं सुख बिना धर्म के नहीं होता है। इसलिये सुख चाहने वालों को हमेशा धर्म का पालन करना चाहिए। विश्लेषण : धर्म शब्द का सभी शास्त्रों में कुछ विशेष नियम पालन से सन्दर्भित है। अर्थात कुछ विशेषनियमों का पालन करने को ही धर्मपालन माना जाता है। धारयतेः इति धर्मः । अर्थात जो धारण करने योग्य नियम हैं, उनका पालन ही धर्म है। जो कोई भी इन विशेष नियमों के विपरीत आचरण करे वह अधर्म है। भारतीय शास्त्रों में अधर्म को पाप से और धर्म को पुण्य से भी निरूपित किया है। धर्म में सुख ही सुख है और अधर्म में दुःख ही दुःख है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी धर्म का विवेचन सवृत के रूप में किया गया है। सद्बत का अर्थ है- सज्जनों का आचरण या अच्छा आचरण । अच्छे आचरण का नाम ही धर्म है। भकत्या कल्याणनित्रानि सेवेतेतरदूरगः।।
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