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फलं त्रिदोष शमनं मूलं चास्य विरेचनम्।। अर्थात् पत्तौ पित्त शामक, डण्ठल कफनाशक, फल त्रिदोष शामक और मूल वेरेचन करने वाला होता है।
सामान्यतः वैगन का साग हानिकर होता है। ऐसी धारणा बनी हुई है। किन्तु यहाँ वैगन के उतम गुणों का निर्देश किया गया है। बैंगन में क्षार का रहना बताया है। यह वैगन का धर्म है जो पाचन में अग्नि दीपन में महायक होता है। यह रस में कटु तिक्त होते हुये पित का वर्धक नहीं होता केन्तु मधुर गुण के रहने से उसके अनुकूल ही रहता है। इसलिए यहां पित्तल शब्द का प्रयोग किया गया है। अर्थात् यह पित को नहीं बढ़ाता है किन्तु पेत को समान मात्रा में रखता है।
करीरमाध्मानकरं कषायं स्वादु तिक्तकम्। कोशातकावल्गुजको मेदिनावग्निदीपनौ।। तण्डुलीयो हिमो रूक्षः स्वादुपाकरसो लघुः।
मदपित्तविषासघ्नः
-मुजातं वातपित्तजित्।। स्निग्धं शीतं गुरू स्वादु बृहणं शुक्रकृत्परम्। . . गुर्वो सरा तु पालगंया
-मदघ्नी चाप्युपोदिका।। . . पालगंयावत्स्मृतश्चचुः स तु संग्रहणात्मकः।
1. करीर का शाक :- यह उदर में आध्मानकारक रस में कषाय, धुर और तिक्त होता है।
2. कोशातकी और वकुची :- यह मलभेदक और अग्निदीपक होते हैं।
3. तन्दुलीय (चौलाई) यह वीर्य में शीत, रूक्ष, विपाक में मधुर, लघु र मद पित्त, विष और रक्तविकार को दूर करने वाला होता है।
4. मुजात शाक :- यह वातपित्तशामक, स्निग्ध, शीतल, गुरू, मधुर, हण और विशेषकर शुक्रवर्द्धक होता है।
5. पालकी :- यह गुरू और मल को भेदन करने वाली होती है। . 6. उपोदिका (पोइ) :-- यह मद अर्थात भांग, गाँजा, इत्यादि के चन से उत्पन्न नशा को दूर करती है। और अपि शब्द से यह गुरू और मल देनी भी होती है। .
7. चचु (चंचु) :- यह पालक़ी के समान गुणकारी होता है। किन्तु । भेदी न होकर मल का संग्रहण करता है। . श्लेषण : सुश्रुत ने इसे मलमूत्र को बाँधने वाला बताया है यथा-“चिल्ली
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