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________________ 9. The Line of Fate अध्याय - 9 भाग्य रेखा वर्तमान समय के जन मानस में भाग्य शब्द अपरिचित नहीं हैं। आज अगर कोई कार्य समय पर नहीं हो पाता या उसमें किसी भी प्रकार की अड़चन आती है तो भाग्य को ही दोष दिया जाता है । गीता के अठारहवें अध्याय में कहा गया है कि भगवान श्री कृष्ण का सारा परिश्रम भाग्य के नीचे दब गया और उसमें लिखा है कि 'दैवचैवात्र पंचमम्” । वास्तव में देखा जाय तो भाग्य एक बाजार है जहां थोड़ी देर ठहरने के बाद भाव गिर जाते हैं। 110 बालक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के आधार पर जिस परिवार में जन्म लेता है उसका परिवेश परिजन बड़ी तन्मयता से पालन करता है। इस जीवन में जो कुछ मनुष्य कर्म करता है। वह धीरे धीरे संचय होता जाता है और उसकी एक तलपट तैयार होती जाती है, हम उसे कलान्तर में भाग्य का रुप दे देते हैं। आज का जो हमारा पुरुषार्थ है वही कल का भाग्य है, वास्तव में कर्मफल भोग के परिपाक को ही भाग्य कहते हैं। मातृ दोषेण दुःशीलो, पितृ दोषेण मूर्खता। कार्पण्य वंश दोषेण, स्वदोषेण दरिद्रता । । (श्रीमद्भागवत महापुराण) मनुष्य यदि चरित्रहीन हो तो उसकी माता में दोष समझना चाहिए. यदि वह मूर्ख है तो उसके पिता का दोष समझना चाहिए, यदि वह गरीब है तो किसी का दोष नहीं स्वयं का दोष समझना चाहिए। इन्ही दस अंगुलियों द्वारा किये गये काम से दैनिक सप्ताहिक मासिक या वार्षिक रुप से भाग्य का संचय होता है। शनि रेखा या भाग्य रेखा मनुष्य का जीवन चक्र बतलाती है। उसका कारबार व्यक्तित्व, आर्थिक उन्नति परिवर्तन, व्याप्त प्रवृतियां इन सब का चित्रण भाग्य रेखा या शनि रेखा करती है।
SR No.009372
Book TitleSaral Hastrekha Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshwardas Mishr, Arunkumar Bansal
PublisherAkhil Bhartiya Jyotish Samstha Sangh
Publication Year2001
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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