SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ब) किण्हा य परमकिण्हा लेसा रयणादि पुढवीसु ।। 185 | पञ्चसंग्रह ।। ।। देवों में लेश्या - तेऊ तेऊ तह तेऊ पम्ह पम्हा य पम्हसुक्का य । सुक्का य परमसुक्का सक्कादिविमाणवासीणं 1173 || जीवसमास ।। तेऊ तेऊ वह तेऊ-पम्ह पम्मा य पम्म सुक्का य । सुक्का य परमसुक्का लेसा भवाणइदेवाणं ।। 189 ।। पञ्चसंग्रह ।। तीव्र तीव्रतर तीव्रतम, मंद, मंदतर तता मंदतम आदि छः कषाय के उत्पन्न हुई परिपाटी क्रम में कृष्ण, नील, कापोत और तेजो ( पीत) पद्म तथा शुक्ल ये 6 लेश्याएं कही गई हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं 1 कृष्ण लेश्या - क्रोधी लम्पट मायावी, आलसी व भीरु । नील लेश्या- अति निद्रालु, दूसरों को ठगने में दक्ष, धन-धान्य विषय में तीव्र लालसा रखने वाला । यथा णिट्ठा- वंचणि बहुलो, धण धण्णे होई तिव्व सण्णोय । लक्खणभेदं भणियं सभासदो णील- लेस्स || 20211 जीवसमास दूसरों के ऊपर क्रोध करने वाला, दूसरों की निन्दा करने वाला, दूसरों को अनेक प्रकार दुःख देने वाला, दोष लगाने वाला, अत्यधिक शोक भय करने वाला, सहन न करने वाला, अपनी प्रशंसा करने वाला, चापलूसी से खुश रहकर अपने हानि-लाभ का व न करना। तेजो (पीत) लेश्या- जो कार्य अकार्य, सेव्य असेव्य को जानता है सबके विषय में समदर्शी नहीं है, दया व दान में तत्पर हैं, मन वचन काय से कोमल परिणामी हैं। पद्म लेश्या जो त्यागी है, भद्र परिणामी है, निर्भय है, निरन्तर कार्य में तत्पर है तथा अनेक प्रकार से कष्टप्रद और अनिष्ट उपसर्गों को क्षमा कर देता है। शुक्ल लेश्या- जो पक्षपात नहीं करता, निदान नहीं बाँधता, सबके साथ समान रहता है, इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेषादि से रहित है। (11) भव्यत्व मार्गणा मिच्छदिडी अभव्वा भवसिद्धीया स सव्वठाणेसु । सिद्धा नेव अभव्वा नवि भव्वा हुंति नायव्वा । 1751। जीवसमास जीवसमास की दृष्टि से जीव के भव्य एवं अभव्य ये दो भेद माने गये हैं। अभव्य जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं जबकि भव्य जीव मिथ्यादृष्टि से सयोग केवली गुणस्थान तक हो सकते हैं। अभव्य जीव सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकते इसलिए सास्वादन व मिश्र गुणस्थान में इनका अस्तित्व ही नहीं होता। अभव्य जीवों को मात्र एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। तद्भव मोक्षगामी जीवों को सभी गुणस्थान संभव हैं। सिद्ध जीव न तो भव्य होते हैं और न अभव्य । भव्य अभव्य का निर्णय स्वयं कर सकते हैं ऐसा कुन्द- कुन्द स्वामी प्रवचनसार में स्पष्ट करते हैं 73
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy