SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म फलों का उपभोग आरम्भ होने से यह शरीर एवं जन्म मिला है उसको भोगे बिना छुटकारा नही । जैन दर्शन के अलावा गीता व बौद्ध दर्शन भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। जिस जीव के चार घातिया कर्मों का क्षय होकर लोका-लोक प्रकाशक केवलज्ञान प्रकट हो जाता ( पंचम ज्ञान ) है वह सयोगकेवली है। यहाँ के पश्चात जीव का आयुष्य मात्र पाँचह्रस्वाक्षर प्रमाण काल ही शेष रहता है तब तक जीव इस गुणस्थान में रहता है। इस गुणस्थान में जीवात्मा कोई विचार-विमर्श या चिन्तन मनन नहीं करता (यह कार्य तो छद्मस्थ जीवात्माओं का है केवली भगवन्तों का नहीं) फिर भी पूर्ण मनोयोग का अभाव न होने एवं वचन व काय योग के विद्यमान होने से जीव की ये अवस्था सयोग केवली कही जाती है। इस काल में मानसिक- कायिक एवं वाचिक व्यापार होता है। अनुत्तरवासी देवों के मन द्वारा पूँछे गये प्रश्नों का उत्तर केवली मनोयोग से ही देते हैं-धर्मोपदेश के समय वचनयोग होता है। आहार-निहार-विहारादि से काययोग होता है। दिगम्बर परम्परा में इस विधान का निषेध किया गया है। जिन केवली भगवन्त के वेदनीय कर्म से आयुष्य की स्थिति कम हो तो उसको समान करने के लिए वे 'समुदघात' करते हैं। अन्यथा शुक्लध्यान के तीसरे पाये सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती के ध्यान का आश्रय लेकर सूक्ष्म योग-निरोध करते हैं एवं सूक्ष्म काययोग निरोध भी करता है। घातियाकर्मों के क्षय का विवरण कर्मों के क्षय का प्रारम्भ क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय ही हो जाता है। तीर्थंकरकेवली, सामान्यकेवली अथवा श्रुतकेवली के सानिध्य में ही कर्मभूमिज मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति का पुरुषार्थ करता है। 1-सर्व प्रथम अन्तःकरण, अपूर्वकरण परिणामों से अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का विसंयोजन द्वारा क्षय हो जाता है। 2- पश्चात यह जीव एक अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त विश्राम लेता है तदनन्तर पुनः अधिकरणादि तीन कषाय परिणामों से मिथ्यात्व कर्म सम्यग्मिथ्यात्व कर्मरूप परिणमित हो जाता है। फिर सम्यक मिथ्यात्व कर्म सम्यक प्रकृति रूप परिणमित हो जाता है। तदनन्तर क्रम से सम्यक प्रकृति का क्षय हो जाता है इस तरह दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों का क्षय हो जाता है। इस प्रकार सम्यक्त्व घातक सात प्रकृतियों का क्षय हो जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व का उपर्युक्त अभूतपूर्व कार्य चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसम्यक्त्व गुणस्थान पर्यन्त किसी भी एक गुणस्थान में त्रिकाल सहज शुद्ध निज भगवान आत्मा का आश्रय रूप पुरुषार्थ से ही होता है। 3- नवमें क्षायिक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया लोभ और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कर्म प्रकृतियों का परम सुख से अभाव हो जाता है अर्थात् इन घातिरूप पाप प्रकृतियों का क्षयण काल में समय- समय प्रति एक- एक पल का संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ व पुरुषवेद रूप कर्म में संक्रमित होकर दोनों कषाय चौकड़ियों का क्षय हो जाता है। 50
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy