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कर लेता है तो वह सम्यग्दर्शनयुक्त अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है इसके विपरीत आयुष्य शेष होने पर उसी क्रम में (मिथ्यात्व गुणस्थान तक) पतन को प्राप्त होता है जिस क्रम में आरोहढ़ किया था।
आचार्य नेमिचन्द्रजी गोम्मटसार(जीव काण्ड, गाथा-61) में लिखते हैं कि शरद ऋतु में मिट्टी के जम जाने से सरोवर का पानी स्वच्छ दिखता है किन्तु यह निर्मलता स्थाई नहीं होती। मिट्टी के पुनः सम्पर्क में आने पर वह पुनः मलिन हो जाता है ठीक यही स्थिति आत्मा में कर्ममल के उपशम या दमन के चलते प्रकट होती है। इससे प्राप्त आत्मशुद्धि एक नियत समयावधि के पश्चात पुनः मलिन या पतित हो जाती है। जिस प्रकार राख के ढेर में दबी हुई चंगारी राख के हटने और वाय के संयोग से पनः प्रज्जवलित हो जाती है ठीक उसी प्रकार 11वें गुणस्थान तक पहुँची आत्मा काषायिक परिणामों के पुनः प्रकटीकरण के कारण पतित होकर नीचे गिर जाती है। वस्तुतः उपशमन की प्रक्रिया में संस्कार निर्मूल नहीं होते। इसी कारण उनकी परम्परा समय पाकर पुनः प्रवृद्ध हो जाती है। इस गुणस्थान में दो स्थितियाँ हो सकती हैंकाल क्षय- यदि दसवें गुणस्थान में आत्मा ने उपशम विधि के द्वारा कर्मों का क्षय किया है तो वह इस गुणस्थान को प्राप्त होती है और अन्ततः पतनोन्मुख बनती है। भव क्षय- इस गुणस्थान में मृत्यु होने पर जीव अनुत्तर विमान में अहिमिन्द्र इन्द्र देव गति को प्राप्त होता है। उसके पश्चात 5 भव में मोक्ष जाता है। 12. क्षीणमोह गणस्थानसंज्वलन लोभ का क्षय करके जीव यहाँ आता है। क्षपक श्रेणी के इस गुणस्थान में मोह का अंश मात्र भी अस्तित्व न रहने से जीव को सम्पूर्ण वीतरागत्व का अनुभव होता है। यहाँ
जीव कभी पतन को प्राप्त नहीं होता। मोहनीय कर्म का क्षय, राग-दवेषादि से रहित होकर जीव यहाँ उत्कृष्ट शुक्ल ध्यान में लीन हो जाता है। केवलज्ञान रूपी महासाम्राज्य में प्रवेश से जीव इस 12वें गुणस्थान में एक अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त विश्राम लेता है। इस गुणस्थान में जीव सभी कर्म प्रकृतियों का अभाव हो जाने के बाद मात्र एक साता वेदनीय कर्म को बाँधता है। नोट- अविकास मिथ्यात्व सासादन और मिश्र विकास पथ - चतुर्थ गुणस्थानवर्ती- सम्यक्त्व में श्रद्धालु, पंचम देशव्रती, उत्कृष्ट श्रावक, अणुव्रती, छठवें प्रमत्त संयमवर्ती- दीक्षावर्ती साधक, अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती साधुपने में दृढ़. प्रतिज्ञ होकर महाव्रती की साधना करता है इसीलिए इसे सर्व विरत गुणस्थान भी कहते हैं। आठवां अपूर्वकरण, नवां अनिवृत्तिबादर, दसवां सूक्ष्मसाम्पराय,11वां उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह ये श्रेणीगत गुणस्थान हैं जहाँ क्रोधादि कषायों तथा चरित्रमोह का उपशम या क्षय होता है। उपशम द्वारा 11वें गुणस्थान में पहुँचकर पतन तय है तो क्षय के द्वारा 10वें से सीधे 12वें गुणस्थान में पहुँचकर मोक्ष जाना निश्चित हो जाता है। जो साधक क्षय विधि के द्वारा सूक्ष्म लोभ को भी नष्ट कर देते हैं वे 10वें गुणस्थान से 11वें में न जाकर सीधे 12वें गुणस्थान में पहुँचते हैं जहाँ से पतन नहीं होता।