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(2) जाग्रत अवस्था - एषा जप्तेर्नवावस्था त्वं जागृत्संसृति श्रृणु । नवप्रसूतास्य परादयं चाहमिदमिदं च मम || अहम् और ममत्व के अत्यल्प विकास की अवस्था जाग्रत स्थिति मानी जा सकती है। यह पशुजगत के (त्रस या त्रियञ्च) कीट पतंगो आदि असंज्ञियों में पाई जाती है। यहाँ अल्पांश में ही अहम् भाव रहता है। (3) महाजाग्रत अवस्थापीवरः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजागृदिति स्फुरन् । अरूढमथवारूढं सर्वथा तन्मयात्मकम्।। इस अवस्था में अहम् भाव की विशेष पुष्टि होती है। यहाँ ममत्व के पूर्ण विकास व आत्म चेतना (कार्य करने की शक्ति) की स्थिति को समझा जा सकता है। यह अवस्था देव या सैनी पंचेन्द्रियों में होती है। (4) जाग्रत स्वप्न अवस्था - यज्जागृतो मनोराज्यं जागृतस्वपनः स उच्चते । द्विचन्द्रशुक्तिकारूप्य मृगतृष्णादि-भेदतः ।। यह मनोकल्पना या दिवा स्वप्न की अवस्था है इसमें भ्रम युक्त व्यक्तित्व की उपस्थिति होने से मृगमरीचिका रहती है। इसके चलते वह जीव विषयवासनाओं में लीन रहता है। (5) स्वप्न (निद्रित) अवस्था - अभ्यासात् प्राप्य जागृत्वं स्वप्नोनेक विधोमभवेत् । अल्पकालं मया दृष्टं एवं नो सत्यमितयपित || इस अवस्था की अनुभूतियों को नींद के पश्चात् जागने की चेतना के रूप में समझा जा सकता है। इस दशा में स्वप्न में देखी वस्तु भी सत्य प्रतीत होती है। (6) स्वप्न जाग्रत अवस्था - निद्राकालानुभूतेर्ये निद्रान्ते प्रत्ययो हि यः । स स्वप्नः कथितस्यान् महाजागृत्स्थितेर्हदि ।। चिरसंदर्शनाभावाद् प्रफुल्लवृहदवपुः । स्वप्नो जागृतयारूढो महाजागृत्पदं ततः || अक्षते वा क्षते देहे स्वप्नजागृन्सतं हि तत्। षडवस्था परित्यागे जडा जीवस्य या स्थितिः।। यह एक प्रकार की स्वप्निल चेतना है जो जागते हुए सपने देखने के समान है। इसमें देखे हुए स्वप्नों की अनुभूति या स्मृति जीव के हृदय में लम्बे समय तक अंकित रहती है। (7) सुषुप्ति अवस्था - भविष्दुःखबोधादया सोषुप्ति शोच्यते गतिः। एते तस्यामवस्थायां तृण-लोष्ठ शिलादयः।। आत्म चेतना की सत्ता होते हुए भी यह जड़ता (स्वप्न रहित निद्रा) की अवस्था है। जीव अपनी आत्मा के कर्मावरणों के प्रति शोक तो करता है किन्तु जड़ता के कारण वासनात्मक प्रवृत्तियों को हटा नहीं पाता। मंगतरायकृत बारह भावना में सारभूत रूप में अज्ञान की सात
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