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6. धारणा- प्राण और मन को विधिपूर्वक अंगुष्ठादिचक्रों में स्थिर करना धारणा है अथवा चित्तवृत्ति की स्थान विशेष में स्थिरता ही धारणा है।
7.ध्यान- वृत्ति के एक से बने रहने की अवस्था ध्यान है और यही ध्यान योग है। इसमें चित्त की चंचलता नष्ट हो जाती है।
8. समाधि- संप्रज्ञता समाधि ध्यान की ही पराकाष्ठा है। ध्येय मात्र का स्फुरण अहंकार रहितब्रह्माकार वृत्ति का उदय तथा त्रिपुटीलय आदि संप्रज्ञात् समाधि में होता है। इसी समाधि को लय योग भी कहा जाता है। श्री रामचन्द्र कृत सामायिक पाठ में निम्न उद्धत पंक्तियों के माध्यम से समाधि की विभावना के इस प्रकार दर्शाया गया है
हे भद्र आसन लोक पूजा संग की संगत तथा । ये सब समाधि के न साधन वास्तविक में है
प्रथा ।।
समाधि से अभिप्राय सविकल्प समाधि है। यम, नियम, आसन, प्रणायाम और प्रत्याहार ये पाँच योग के बहिरंग साधन हैं तथा धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन योग के आन्तरिक साधन हैं। ध्येयमात्र का स्फुरण समाधि है और स्वरूप का स्फुरण असंप्रज्ञातयोग है। योग बिन्दु में आध्यात्मिक विकास की स्थितियां
(1) मित्रदृष्टि और यम यम अर्थात् अहिंसादि पाँच महाव्रतों का पालन मित्रदृष्टि साधक करता है। इस अवस्था का आत्मबोध सम्कत्व सहित तो होता है किन्तु शुभ क्रियाओं में मोह राग या रुचि के चलते पूर्ण परित्यक्ततायुक्त नहीं होता ।
(2) तारादृष्टि और नियम- इस दशा में साधक शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय आदि नियमों का पालन करते हुए शुभ कार्यों के प्रति अप्रेम का गुण व तत्व ज्ञान की जिज्ञासा का सृजन कर लेता है।
(3) बलादृष्टि और आसन- व्यक्ति यहाँ मनोविकारों व तृष्णा को शान्त करने की शक्ति संचय करके योग निरोध का अभ्यास मन, वचन, काय के माध्यम से करता है। इस अवस्था का तत्व बोध काठ की अग्नि के समान होता है।
(4) दीप्रादृष्टि और प्रणायाम- यह योग के प्रणायाम के समान है जैसे प्रणायाम की रेचक, पूरक, और कुम्भक तीन अवस्थाएं है ठीक उसी प्रकार दीप्रादृष्टि क्रमशः बाह्य भाव नियन्त्रण, आन्तरिक भाव नियन्त्रण तथा मनोभावों की स्थिरतारूप कुम्भक जिसमें सदाचार की ज्योति प्रज्वलित रहती है, के समान होती है किन्तु पूर्ण नैतिक विकास के अभाव में इस अवस्था में पतन की सम्भावना बनी रहती है। इन चारों अवस्थाओं में आसक्ति रहती है, यथार्थ बोध नहीं होता।
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