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________________ (स) योगपरम्परा में वर्णित आध्यात्मिक विकास एवं गणस्थान भूमिकावेदान्त योग को ज्ञान के साधन अर्थात् ज्ञान साधना के रूप में स्वीकार करता है तथा स्मृति, इतिहास, पुराण तथा अन्य श्रुति में भी योग का ज्ञान-साधनत्व प्रसिद्ध है और गुणोपसंहार न्याय से योग की हेतु रूपता स्वीकार्य की गई है। योग वशिष्ठ दर्शन और चिन्तन ग्रन्थ हिन्दू परम्परा का वह प्रमुख ग्रन्थ है जिसमें आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। संख्या की दृष्टि से तो ये जैन दर्शन में वर्णित 14 गुणस्थानों के समकक्ष ही हैं तथा गहनता व विषय वस्तु की दृष्टि से भी इनकी जैन अभिगम में निकटता देखने को मिलती है। योग बिन्दु में आध्यात्मिक विकास को लेकर आचार्य हरिभद्र ने इसकी पाँच भूमियां बताई हैं- अध्यात्म, ध्यान, भावना, एकता, तथा वृत्ति संक्षय। इनमें प्रथम चार को उन्होंने सम्प्रज्ञात् अर्थात् चित्त समत्व तथा अंतिम को असम्प्रज्ञात् भूमिका अर्थात् आत्म रमण (जो अंतिम लक्ष्य मोक्ष की तरह है) कहा है। अद्वैतमार्तण्ड योग के विषय में विशद विवेचन प्रस्तुत करता है। ज्ञानयोग तथा अद्वैतयोग विविध योग का उल्लेख इसमें किया गया है। प्रथम प्रकार के येग में आत्म एवं अनात्म के विवेचन एवं ज्ञान का अभ्यास किया जाता है जबकि द्वितीय प्रकार में अभेदभाव का स्थापन होता है। अद्वैत मार्तण्ड में योग की सात भूमियाँ बताई गईं हैं। तीव्र मोक्ष की इच्छा वाली ज्ञानावस्था शुभेच्छा है। श्रवणमननरूपा विचारणा है। ब्रह्माकार सूक्ष्म मन की अवस्था तनुमानसा है सिद्ध में आसक्ति रूप असंशक्ति है। ब्रह्मातिरिक्त पदार्थ की भावना न करने वाली पदार्थभावना है तथा स्वरूपात्मक भूमि तुर्यगा है। प्रथम तीन साधन भूमियाँ हैं, चतुर्थ संप्रज्ञात एवं फलात्मिका भूमि है तथा अतिंम तीन असंप्रज्ञात भूमियाँ हैं। पंचम में उत्थान स्वयं होता है तथा षष्ठं भूमिका में अन्य के द्वारा होता है। सप्तम भूमिका में व्युत्थान स्वतः होता है न परतः। योग दृष्टि समुच्चय एवं गुणस्थानआचार्य हरिभद्र कृत योग दृष्टि समुच्चय में आठ दृष्टियों का उल्लेख है जिसमें चार पतन और चार आध्यात्मिक उत्थान की द्योतक हैं। योग के आठ अंगों - यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि आदि की तुलना गुणस्थान के साथ निम्नवत् रूप से की जा सकती है। 1.यम- अहिंसा, अस्तेय, स्त्रीसंगाभाव तथा अपरिग्रह इन पंचविध मुख्य यमों के अतिरिक्त क्षमा, युति, दया, आजर्व, मिताहार,शौचादि की योजना द्वारा दशविध यमों की भी प्रसिद्धि 150
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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