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________________ के साधना काल में मृत्यु को प्राप्त होने पर साधक एक ही जन्म धारण करता है। यदि वह अगली अवस्था अनागामी या क्षीण मोह को प्राप्त होता है तो इसी भव में निर्वाण प्राप्त करता है इसे लेकर दोनों में मतैक्य दीखता है। (स) अनागामी भूमि- बौद्ध विचार धारा के अनुसार इस भूमि को प्राप्त साधक यदि भावी आध्यात्मिक विकास का प्रयास नहीं करता तो मृत्यु होने पर ब्रह्म लोक में जन्म लेकर सीधा निर्वण को प्राप्त होता है। जबकि आगे बढ़ने वाला साधक शेष पाँच उड़ढभागीय संयोजन-रूप-राग, अरूप राग, मान, औद्वित्यऔर आविद्या का नाश कर अंतिम अर्हतावस्था में प्रवेश की योग्यता हाँसिल कर लेता है। सामान्य रूप से आठवें से बारहवे गुणस्थान तक की अवस्थाएं यहाँ आ जाती हैं। (द) अर्हतावस्था- दसों बन्धनों को तोड़कर एक भिक्षु कृतकाय (उसके लिए कुछ भी करने को शेष नहीं रहता तथापि संघ सेवा हेतु वह क्रियाशील रहता है) हो जाता है। यह जीवानुमुक्ति एवं निर्वाण की अवस्था है इसकी तुलना सयोग केवली गुणस्थान से की जा सकती है। महायान में आध्यात्मिक विकासमहायान सम्प्रदाय में दस भूमियों का वर्णन है जो मूलतः क्रमिक आध्याक्मिक विकास की आवधारणा पर आधारित है। महायान सम्प्रदाय के अलग-अलग सूत्रों में नामों की विभिन्नता देखने को मिलती है। यथा- दशभूमिशास्त्र के अनुसार- (1) प्रमुदिता (2) विमला (3) प्रभाकरी (4) अर्चिष्मति (5) मृदुर्जया (6) अभिमुक्ति (7) दूरांगमा (8) अचला (9) साधुमति और (10) धर्म मेघा। महायान के संक्रमण काल में लिखे गये महावस्तु नामक ग्रन्थ के अनुसार- ( 1) दुरोहा (2) बद्धमान (3) पुष्प मंडिता (4)रुचिता (5)चित्त विस्तार (6( रूपमति (7) दुर्जया (8) जन्मनिदेश (9) यौवराज और (10) आभिषेक। असंग महायान सूत्रालंकार में प्रथम भूमि का नाम अधिमुक्तिचार्य भूमि कहा है किन्तु अंतिम बुद्ध भूमि या धर्म मेघा नहीं बताई गई है। लंकावतार में धर्म मेधा और बुद्ध (तथागत) भूमि को अलग-अलग बताया गया है। उपरोक्त वर्णित भूमियों को संकलित करके आध्यात्मिक विकास क्रम की दृष्टि से निम्नवत रूप से स्पष्ट किया जा सकता है। 1- अधिमुक्तचर्या भूमि- प्रथम भूमि की तुलना जैन दर्शन के चतुर्थ गुणस्थान से की जा सकती है। इस भूमि का साधक पुद्गल और नैरात्म्य का भेद ज्ञान रखता है एक सम्यग्दृष्टि या दृष्टि विशुद्धता की भाँति। 147
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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