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________________ परमार्थमूलक(मानवतावादी प्राणिमात्र के प्रति प्रेम) होता है । गुणस्थानक की परमानन्द स्थित की प्राप्ति इस संवेग के अभाव में संभव नहीं है। 7. ईर्ष्या (Jealously)- स्नेह के टूटने का क्रम या कम होने का भय ईर्ष्या संवेग की प्रतिक्रिया है। यह क्रोध की उपशाखा है। ईर्ष्यालु व्यक्ति सदैव अपने को असुरक्षित महसूस करता है। इसकी अभिव्यक्ति अन्य के प्रति अप्रत्यक्ष रूप से होती है। ईर्ष्या के प्रति उद्दीपन(Stimulus) है- किसी प्रेम करने वाले व्यक्ति के व्यवहार का आपके प्रति अचानक बदल जाना। यहाँ प्रतिस्पर्धा की भावना प्रेम, साहस, प्रशंसा या सहानुभूति की जगह ईर्ष्या को जन्म देती है। कभी-कभी इसकी परिणति केंकड़ावृत्ति के रूप में होती है जो न तो खुद ऊपर उठती है और न ही दूसरों को ऊपर उठने देती है। स्वयं को ऊँचा व अन्य को नीचा दिखाने की ललक इस वृत्ति को उत्तेजित करने में कारणभूत है। ईर्ष्या की परिणामजनित प्रतिक्रिया निम्न रूपों में दृष्टिगत होती है- सीमातीत विरोध, विरोधी भावों की पहचान, दमनात्मक प्रवृत्ति का विकास तथा रचनात्मकता में अवरोध आदि। ईर्ष्या वातावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर है ईर्ष्यात्मक व्यवहार वर्तमान व भावी वातावरण को दूषित बनाते हैं। आध्यात्मिक विकास की ओर आरोहण में यह संवेग बाधक व घातक ही सिद्ध होता है। 8. आनन्द एवं सुख (Pleasure & Joy)-यह संवेग किसी वस्तु या क्रिया से सुख या आनन्द की अनुभूति कराने वाला है। गुणस्थानक विकास यात्रा में इस संवेग की क्रियाशीलता प्रकट होती है- उत्कृष्ट श्रावक से मुनि बनने के अवसर अथवा ध्यानादि के लिए अधिक समय मिल जाने के रूप में। आनन्द की अनुभूति स्मित, मुस्कान, खिलखिलाहट, उनमुक्त हँसी व असीम संतुष्टि आदि के रूप में होती है। संवेग पर नियनत्रण की विधियां (Methods of Control on Emotions) जरशील्ड की अवधारणा है कि यदि कोई संवेग परिपक्व हो जाय तो उसमें संशोधन करना कठिन हो जाता है। इसके नियन्त्रण की कुछ विधियां इस प्रकार हैं1. दमन (Repression)-यह संवेगात्मक नियन्त्रण की वह विधि है जिसमें साधक इन्हें भूलने या मन से निकालने का प्रयास करता है। 2. अभिव्यक्ति (Expression)-यह विधि मार्गान्तीकरण भी कहलाती है। इसके द्वारा संवेग को समाज के स्वीकृत ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। 3. अध्यवसाय (Industriousness)- इस विधि में साधक संवेग के प्रभाव को निष्प्रभ करने हेतु स्वयं को अन्य कार्यों में व्यस्त रखता है ताकि अवांछित संवेगों की अभिव्यक्ति को अवकाश ही न मिले। 129
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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