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________________ अध्याय - 8 गणस्थान का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आध्यात्मिक विकास की यात्रा जीव के परिणाम (भावों) एवं व्यवहार के आधार पर चलती है किन्तु इसमें भावों की प्रधानता अधिक होती है। इस विकास यात्रा के उत्कृष्ट सोपानों में भाव शुद्धि ही आत्म विशुद्धि का साधन मात्र रह जाती है। मनोवैज्ञानिक आधारों में चेतना या अवबोधन, पुरुषार्थ के प्रति रुझान अर्थात् मनोवृत्ति व मूल्य ,पुरुषार्थ एवं कर्म जनित भावों की तीव्रता अर्थात संवेग, कर्मक्षय के पुरुषार्थ की शैली अर्थात् व्यक्तित्व, आगे बढ़ने हेतु प्रेरणात्मक घटकों का नियतक्रम या अभिप्रेरण, आत्मिक या आन्तरिक संघर्ष, दृढ़ता, मनोवेगों की प्रभावशीलता तथा उस पर नियन्त्रण का आत्मबल व दमन- क्षय की शक्ति, सम्यक् मार्ग में विश्वास, ध्यान का स्व की ओर केन्द्रीयकरण, एकाग्रता व अहम् रहित नैतिक आदर्श आदि पहलुओं को विश्लेषण की दृष्टि से सम्मिलित किया जा सकता है तथा गुणस्थानों के साथ इनकी सापेक्षता को स्थापित किया जा सकता है। प्राचीन जैनागमों में आत्मा की नैतिक व आध्यात्मिक उत्क्रान्ति को गुणस्थान पद्धति द्वारा स्पष्ट किया गया है जो विकास यात्रा के साधन स्वरूप में विभिन्न मनोभूमियों के चित्रण से परिपूर्ण हैं। जीव के कर्मों का बन्ध, उदीरणारूपी पुरुषार्थ, कर्मक्षय या निर्जरा सम्बन्धी मनोभावों का परिणाम है। मोहाशक्ति की उत्कटता, मंदता एवं अभाव की स्थितियां गुणस्थान विकास की अपेक्षा से जीव के मन या भावों से एक हद तक जुड़ी मानी जा सकती है जिसके चलते जीव सम्यक ज्ञान (दर्शन मोह) व नैतिक आचरण (चारित्र मोह) से विलग रहता है। आध्यात्मिक विकास की इस यात्रा में अज्ञान, संशय, मनोविकार, स्व तथा स्वार्थ प्रेरित पुरुषार्थ के दायरे (गीता के अनुसार- कर्म फल की आकांक्षा व तामसी वृत्ति) तथा लक्ष्य की तरफ प्रेरक सिद्धि की दृढ़ता का अभाव आदि बाधक कारक हैं जो मुख्यतः मन का विषय हैं। व्यक्ति 'मैं' पर केन्द्रित होकर कषायादि परिणामों को हवा देता है तथा मेरा - तेरा के अहम् जनित संघर्ष में निज स्वरूप की ओर उन्मुख नहीं होता। संयोग पाकर उसके भाव 'मैं ' से 'हम' में परवर्तित होते हैं जहाँ शुभाशुभ परिणामों पर आधारित "परस्परोपग्रहोजीवानाम्" की तरह 'कल्याण' की अनुभूति रहती है किन्तु ये भी कर्म बन्ध के कारक हैं भले ही वे शुभ क्यों न हों फिर भी यह मुक्ति का साधन नहीं हो सकते। इसके लिए तो 'शून्यता' की ओर तेजी से बढ़ना होता है तथा उसी में निर्विकल्प होकर एकाग्र या स्थिर होना पड़ता है। इसकी प्रभावशीलता का व्यावहारिक पटल से जुड़ा एक उदाहरण देखें तो स्वामी विवेकानन्द का 115
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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