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________________ पंच परमेष्ठी णमोकार महामंत्र एवं आत्म विशुद्धि की अवस्थाएं (गुणस्थानक विकास अवस्थाएं) णमो अरिहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आयरियाणं। णमो उवझायाणं। णमो लोए सव्व साहणं। जैन दर्शन में महामंत्र के रूप में प्रतिष्ठित 5 पद व 35 अक्षरों से शोभित णमोकार मंत्र में साधक-साधना की दृष्टि से गुणस्थानक समरूप स्थितियां परिलक्षित होती हैं। यहाँ अंतिम पाँचवी अवस्था- सर्व साधु है जो आत्म साधना की उत्कृष्ट किन्तु आरम्भिक अवस्था है जो सम्यक्त्व सहित है। इसे अभ्यास सोपान (साधना या सीखने की दशा) में पाँचवें गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान का पूर्वार्द्ध देख सकते हैं। इस क्रमिक सोपान पर क्षुल्लक एवं ऐलक साधु व आर्यिकाएं आदि को रखा जाता है। चौथी अवस्था में उपाध्याय मुनिगण आते हैं। यहाँ साधक स्वयं तो उत्कृष्ट स्थिति में पहुँचता ही है साथ ही साथ आचार्य के निर्देश पर साधर्मी को वात्सल्य भाव से इसी पुरुषार्थ पथ(इन्द्रिय जय) पर चलने हेतु आवश्यक योग्य सैद्धान्तिक व व्यावहारिक ज्ञान से परिपक्व बनाता है। तीसरी अवस्था साधना श्रेणी की वह उत्कृष्ट स्थिति है जिस पर मुनि विचरण करते हैं। इस श्रेणी के साधक आचार्य पद की गरिमा से सुशोभित होते हैं। इसके पश्चात के आत्म-साधक के लिए साधना व परुषार्थ हेत कछ भी बाकी नहीं रह जाता। सारे कर्म बन्धन जली हई रस्सी की भाँति जीर्ण- शीर्ण हो चुके होते हैं क्षीणमोह नामक 12वें गुणस्थान की भाँति। बस तैयारी रहती है इसके अगले चरण से अंतिम चरण (मोक्ष-ध्येय सिद्धि) के निकट पहुँचने की। दूसरी पद स्थिति में पहुँचने से पूर्व जीव साधना प्रक्रिया के दरम्यान पहले अरिहंत अवस्था को प्राप्त होता है जहाँ जीव के सारे संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। राग-द्वेषादि भावों से रहित वह जीव मात्र केवलज्ञान पुंज स्वरूप रहता है बस देह-दोष ही शेष रह जाता है सयोग केवली नामक गुणस्थान की तरह। दूसरे क्रम की सिद्धावस्था केवली के देहातीत होते ही प्राप्त होती है जिसमें आत्मा जन्म-मरण के झंझट से हमेशा के लिए छूटकर परमात्मा में लीन हो जाती है। नवकार मंत्र व गुणस्थान: उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरणजिस प्रकार लौकिक जगत में शैक्षिक योग्यता या डिग्रियों का उच्चतर आरोहणक्रम है यथा इण्टर, स्नातक, अनुस्नातक, विद्यावाचस्पति तथा अतिम मुकाम अर्थात् मंजिल। ठीक इसी क्रम में नवकार मंत्र के पाँच पदों को गुणस्थानक आरोहण स्थिति क्रम के संदर्भ में समझा जा सकता है। 113
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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