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________________ रौद्र ध्यान- हिंसा, झूठ, चोरी और विषय संरक्षण (इनमें एवं इनसे सम्बन्धित साधन जुटाने में आनन्द लेना) से उत्पन्न हुआ ध्यान रौद्र ध्यान कहलाता है। यह अविरत (चौथे), देशविरत(पाँचवें) गुणस्थानों में होता है। धर्म ध्यान- आज्ञाविचय(आगम की प्रमाणता से अर्थ का विचार करना), अपायविचय(संसारी जीवों के दुःख का तथा उससे छूटने के उपायों का चिंतवन करना), विपाकविचय(कर्म के फल का-उदय का विचार करना) और संस्थानविचय(लोक के आकार का विचार करना) धर्म ध्यान के लक्षण कहे हैं। यह चौथे गुणस्थान से लेकर सप्तम गुणस्थान तक श्रेणी चढ़ने के पहले तक होता है। शुक्ल ध्यान- सामान्यतया धर्म विशिष्ट ध्यान को धर्म ध्यान तथा शुद्ध ध्यान को शुक्लध्यान कहा गया है। शुक्लध्यान के 4 भेद हैं- अर्थात् पृथक्त्ववितर्क (जिसमें वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान और विचार दोनों हों) तथा एकत्ववितर्क(जो सिर्फ वितर्क सहित है)- ये पूर्व ज्ञान धारी श्रुतकेवली के ही होता है। शेष दो में शामिल हैं- सूक्ष्मकाययोग के आलम्बन से होने वाला सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान एवं व्युत्परतक्रियानिवृति नामक शुक्लध्यान जिससे आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द पैदा करने वाली श्वासोच्छ्वास आदि समस्त क्रियाएं निवृत हो जाती हैं। अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थान की अवस्थाओं में ध्यान की स्थिति निम्नवत् रहती हैआर्तध्यान का सदभाव = तीनों अवस्थाओ में रहता है। रौद्र ध्यान = अविरत व देशविरत अवस्था में होता है। धर्म ध्यान = अप्रमत्त संयत को उपशान्त कषाय व क्षीण कषाय की अवस्था में होता है। शक्ल ध्यान = उपशान्तं कषाय (उपशान्त मोह), क्षीण कषाय (क्षीण मोह) की स्थितियों में होता है। तत्त्वार्थ सूत्र में 12वें - 14वें गुणस्थान की समकक्ष अवस्था का वर्णनमोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्चकेवलम।। 1- अ. 10।। मोहनीय कर्म का क्षय होने से अन्तर्मुहूर्त के लिए क्षीण कषाय नामक 12वाँ गुणस्थान पाकर एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय का क्षय होने से (4 घातिया कर्म) केवलज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञातव्य है कि मोक्ष (सिद्धत्व की प्राप्ति) केवलज्ञान पूर्वक ही हो सकती है। समस्त कर्म प्रकृतियों का अभाव ही मोक्ष है। औपशमकादिभव्यत्वानां च ।।3 ।। अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ||4 || 106
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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