SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय-6 तत्त्वार्थसूत्र में निहित गुणस्थान के अभिगम की समीक्षा भूमिकातत्त्वार्थसूत्र में सात नय (नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्द समिभिरूढ़ एवं एवंभूत) वर्णित हैं। जीवसमास (जीवठाण अथवा गुणस्थान) में अंतिम दो नयों का अल्लेख नहीं है। वहीं सिद्धसेन दिवाकर नैगम नय को अस्वीकार करते हुए समभिरूढ़ एवं एवंभूत के साथ इनकी संख्या 6 मानते हैं। इससे प्रतीत होता है कि नयों की अवधारणा छठी सदी के उत्तरार्ध में विकसित हुई है और जीवसमास इससे पूर्व। जबकि गुणस्थानों के आधार पर अवलोकन किया जाय तो स्पष्ट होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानों की अवधारणा ज्यों की त्यों देखने को नहीं मिलती जबकि जीव समास में है। षट्खण्डागम में भी पाँच नयों का उल्लेख है। गुणस्थान की अवधारण लगभग पाँचवीं सदी के उत्तरार्द्ध और छठी सदी के पूर्वार्द्ध में कभी अस्तित्व में आयी होगी ऐसा माना जा सकता है। जैन दर्शन में उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र को कर्म विशुद्धि का विवेचन करने वाला एक प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। गुणस्थान सिद्धान्त की भाँति इसमें भी कर्मों के क्षय और उपशम की बात की गई है फिर भी कुछ भिन्नताएं दिखती हैं। तत्त्वार्थसूत्र में कर्म विशुद्धि की 10 अवस्थाएं मानी गई हैं जिनमें से प्रथम पाँच का सम्बन्ध दर्शनमोह तथा अंतिम पाँच का सम्बन्ध चारित्रमोह से है। तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्याय को ध्यान में रखते हुए यदि गणस्थान का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि आध्यात्मिक विकास का यह क्रम प्रथम सम्यक्दृष्टि की अपेक्षा से काफी मेल खाता है। इसे प्रवाहक्रम में निम्नवत् रूप से भी समझा जा सकता है - श्रावक और विरत के रूप में विकास - दर्शनमोह का उपशम- चौथी अवस्था में अनन्तानुबंधी कषायों का क्षपण- पाँचवीं अवस्था में दर्शनमोह का क्षय- छठवीं अवस्था में चारित्रमोह का उपशम- सातवीं अवस्था में चारित्रमोह का उपशान्त होना- आठवीं अवस्था में उपशान्त मोह का क्षपण (क्षपक)- नौवीं अवस्था में चारित्र मोह क्षीण (क्षीण मोह) होना- दसवीं अवस्था में जिन की प्राप्ति। आत्मा या जीव का स्वरूपओपशमिक क्षायको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्व मौदयिक पारिणामिको च।। 1 || द्विनवाष्टा दशैक विशिति त्रि भेदा यथाक्रमम। उपर्युक्त सूत्र में आत्मा के भाव, विभिन्न पर्याय एवं उनकी अवस्थाएं बताई गई हैं। इन सभी को जैन दर्शन अधिकतम पाँच स्वरूपों में श्रेणीकृत करता है- 1. औपशमिक 2. क्षायिक 3. 100
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy