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________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 'काल चक्र' दो शब्दों का समुदाय है। काल का अर्थ है 'समय' और चक्र का अर्थ है 'परिवर्तन' - इस प्रकार समय का परिवर्तन/फेर ही काल चक्र है। हम यहाँ सर्व प्रथम काल की चर्चा कर रहे हैं; फिर चक्र/ परिवर्तन की चर्चा अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल के रूप में आगे विस्तार से करेंगे। काल की परिभाषा | स्वरूप - जैन दर्शनानुसार लोक षद्रव्यात्मक है।' छह द्रव्यों में काल भी एक द्रव्य है, जो कि स्वतंत्र पदार्थ है। विभिन्न ग्रन्थों में काल का स्वरूप निम्नानुसार बताया है - (1) स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित, अगुरुलघुत्व गुण सहित और वर्तना लक्षण से युक्त काल द्रव्य है। __(2) जीवादीदव्वाणं परिवट्टणकारणं हवे कालो।' अर्थात् जीवादि द्रव्यों के परिवर्तन का कारण काल द्रव्य है। ___(3) वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य। अर्थात् वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व काल के उपकार हैं। (4) जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के 1. षड्दर्शनसमुच्चय, 4/49/171/पृ.250 2. 'कालश्च' - तत्त्वार्थसूत्र, 5/39 3. तिलोयपण्णत्ती, 4/281 4. नियमसार, गाथा-33 5. तत्त्वार्थसूत्र, 5/22
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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