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________________ 56 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 6000 किलोमीटर मध्य से ऊपर उठी हुई भूमि प्रलय के पश्चात् छठे काल के अन्त में पुनः समतल हो जायेगी। तिलोयपण्णत्ती में इस वृद्धिंगत भूमि के जलकर नष्ट होकर पुनः समतल होने की बात तो कही है, परन्तु यह भूमि कब और कैसे वृद्धिंगत हुई, इसके कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सके हैं। यह अभी भी शोध का विषय है। तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक 4/13 पृष्ठ 563 में लिखा है कि काल के वश से घट-बढ़ होकर पृथ्वी में ऊँचा-नीचा पना देखा जाता है। तिलोयपण्णत्ती के प्रमाण अनुसार भी यह तो निश्चित ही है कि आर्यखण्ड की भूमि एक योजन वृद्धिंगत हुई है। यह उठा हुआ भूभाग ही आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा मान्य अर्थ/ पृथ्वी है। हुण्डावसर्पिणी काल - असंख्यात' अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल बीत जाने पर एक प्रसिद्ध अपवाद स्वरूप हुण्डावसर्पिणी काल आता है। इसमें होने वाली अनेक विचित्रताओं की चर्चा तिलोयपण्णत्ती67 आदि ग्रन्थों में दी है, उनका संक्षिप्त सार इसप्रकार है - म (1) सुषमा-दुषमा नामक भोगभूमि के तृतीय काल में ही वर्षा होना तथा विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होने लग जाना। (2) जघन्य भोगभूमि में ही कल्पवृक्षों का अंत, कर्मभूमि का प्रारंभ तथा प्रथम तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती का भी उत्पन्न हो जाना। 166. तिलोयपण्णत्ती, 4/1637 167. वही, 4/1637-1645
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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