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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
आचार्य यतिवृषभ' कहते हैं - इसमें पूर्वादि प्रदक्षिणा रूप से 12 कोठे (सभा) होते हैं। जिनमें उनके प्रमुख शिष्य गणधर एवं मुनिराज, चार प्रकार के देव, चार प्रकार की देवियाँ, आर्यिका व स्त्रियाँ, पुरुष एवं तिर्यंच बैठकर धर्मोपदेश का लाभ प्राप्त करते हैं । तिर्यंच गति के हाथी, सिंह, व्याघ्र और हिरणादि भी परस्पर बैर को छोड़कर समवशरण में मित्र भाव से बैठते हैं ।
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हम भी अनन्त बार समवशरण में गये, तीर्थंकर परमात्मा की वाणी भी सुनी, उनकी महिमा भी आई; किन्तु फिर भी अपने निज ज्ञायक की महिमा एवं उसका अवलम्बन न होने से संसार समुद्र से पार होने की राह न मिल सकी ।
चक्रवर्ती
प्रत्येक चतुर्थ काल में 12 चक्रवर्ती होते हैं। वर्तमान चतुर्थ काल में भरत क्षेत्र में भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त ये 12 चक्रवर्ती137 छह खण्डरूप पृथ्वीमंडल को जीतने वाले परमप्रतापी पुरुष हुये हैं।
इन सभी चक्रवर्तियों का वैभव तिलोयपण्णत्ती में 4 / 1382 से 1409 तक बहुत विस्तार से बताया है। इनके 96000 रानियाँ, 84 लाख हाथी, 18 करोड़ घोड़े, कई करोड़ विद्याधर, 88000 म्लेच्छ राजा, 32000 मुकुटबद्ध राजा, इतनी ही नाट्यशालायें, इतनी ही संगीत शालायें, 14 रत्न, 9 निधियाँ, 32000 अंगरक्षक देव, छत्र, 32 चँवर आदि होते हैं। इन समस्त दिव्य वैभव से युक्त होकर वे
136. तिलोयपण्णत्ती, 4 / 865-872 का सार
137. वही, 4/522-523