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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
5. उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी काल - ___ जैन परम्परा के अनुसार कालचक्र उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के रूप में क्रमशः निरन्तर परिवर्तन किया करता है। उत्सर्पिणी काल उत्थान का काल है, इस काल में विकास देखा जाता है तथा अवसर्पिणी काल ह्रास का काल है, इसमें निरन्तर गिरावट /कमी देखी जाती है। इन दोनों का स्वरूप स्पष्ट करनेवाले कतिपय शास्त्रीय उद्धरण निम्नानुसार है, किंचित् शब्द भेद से लगभग सभी में एकसी बात कही गई है - (1) णर-तिरियाणं आऊ, उच्छेह-विभूदि-पहुदियं सव्वं ।
अवसप्पिणिए हायदि, उस्सप्पिणियासु वड्ढेदि।।4 अवसर्पिणी काल में मनुष्य एवं तिर्यंचों की आयु, शरीर की ऊँचाई एवं विभूति आदि सब ही घटते रहते हैं तथा उत्सर्पिणी काल में बढ़ते रहते हैं।
(2) भरते ऐरावते च मनुष्याणां वृद्धिहासाविति...अनुभवायुः प्रमाणादिकृतौ। जिसमें भरत और ऐरावत क्षेत्र में मनुष्यों के अनुभव, आयु, प्रमाण आदि की वृद्धि होती है, वह उत्सर्पिणी काल है और जिसमें इनका हास होता है, वह अवसर्पिणी काल है। -- (3) अनुभवादिभिरवसर्पणशीला अवसर्पिणी।
_तद्विपरीतोत्सर्पिणी। जिसमें अनुभव, आयु, शरीरादि की उत्तरोत्तर उन्नति हो, वह 44. तिलोयपण्णत्ती, 4/318 45. सर्वार्थसिद्धि, 3/27/418/ पृ. 166 46. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 3/27/4-5/पृ.191