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________________ लेने के पश्चात प्रथम वर्षावास में ही आप श्री ने सूत्रकतांग जैसे दार्शनिक आगम का अनुवाद लिखा । तत्पश्चात् भी यह क्रम बना रहा । फलस्वरूप आप श्री की लगभग 50 से भी अधिक किताबे व्याख्यान - संग्रह अनप्रेक्षा-ग्रन्थ जीवन चरित्र तत्व चिंतन उपन्यास और कविता- स्तति संग्रह इस प्रकार विविध विधाओं में प्रकाशित है तो लगभग पचासौं रचनाएँ अप्रकाशित भी हैं । आपने दिवाकर-देन, सूर्य-साहित्य भाग 1 से 4 का संपादन भी किया है तो आगमों का अनुवाद भी किया है | विवेचनात्मक ग्रन्थ भी लिखे हैं तो प्राकृत भाषा में स्वयं रचित एवं विवेचित मोक्ष - पुरूषार्थ, णमोक्कार अणुप्पेहा, सामण्ण सढि धम्मो, आदि मौलिक रचनाएँ अपना विशिष्ट महत्व रखती है । इनमें प्रमुख मोक्ष-पुरुषार्थ ऐसा अनमोल ग्रन्थ है जिसकी 2517 प्राकृत गाथाओं की रचना आपने पहले ही कर ली और विवेचन अनुवाद बाद में लिखा । यह ऐसा अनमोल ग्रन्थ है जो भव्य आत्माओं को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में अत्यंत उपयुक्त है | धर्मदास सम्प्रदाय के गौरवशाली इतिहास पर आप द्वारा लिखित पुस्तक " श्रीमद् धर्मदासजी म. और उनकी मालव शिष्य परम्परा " विशेष रूप से पठनीय हैं । आपश्री का यह साहित्य के क्षेत्र में योगदान युगों-युगों तक साधकों के लिए मार्गदर्शन करता रहेगा, आपकी प्रत्यक्ष उपस्थिति का अनुभव कराएगा और चतुर्विध-संघ सदैव आपके प्रति कृतज्ञ रहेगा । 13 लघुता में प्रभुता -- प्रभुता में लघुता ! सूर्य मति गृहस्थावस्था में एक बार गाँधीजी की आत्मकथा में आपने पढ़ा कि सत्य के अन्वेषक को रजकण से भी छोटा बनना पडता है | उस समय उम्र थी 17 वर्ष की आपने स्वयं के लिए चिंतन किया कि मुझे परम सत्य की खोज करना है अतः मुझे भी लघुतम होना ही होगा | तभी से आपने अपना उपनाम "अणु" रख लिया । आपकी रचनाए अणु जैन के नाम से भी प्रकाशित होने लगी । वास्तव में स्वयं को छोटा मानने वाला ही महान होता हैं | जब प्रवर्तक पू. गुरुदेव श्री ने जी म.सा. और मालव केसरी जी म.सा. दोनों महाविभूतियों का अल्प अन्तराल में ही देवलोकगमन हो गया तब संघ के नेतृत्व का दायित्व आपको सौंपा गया । मन तो तब भी नहीं था पर पू. गुरू भ्राता के कहने से मौन रहे । जब सन् 1987 में पूना सम्मेलन में श्रमण संघ के भावी आचार्य निर्विरोध आपसे निवेदन किया गया उस समय भी आपने सविनय मना कर दिया और जब सन् 2003 में श्रमण संघ में उथल-पुथल हुई 'आप मानो या ना मानो हमनें तो आप श्री को आचार्य मान ही लिया हैं ' ऐसा वरिष्ठ संतो द्वारा आपको कहे जाने पर भी आपने सुझबुझ के साथ उपाय भी सुझाये । लेकिन होनहार बलवान थी । इस कारण से कई प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी निर्मित हुई और ऐसे माहोल में भी आपने अपने आपको संयत ही रखा। प्रशंसा में फूले नही निंदा में आत्मभान भूले नहीं | पद दिया तो भी स्वयं को
SR No.009363
Book TitleUmeshmuni Acharya Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashast Runwal, Jinal Chhajed
PublisherPrashast Runwal, Jinal Chhajed
Publication Year2014
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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