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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्ये शक्रन्द्रक्रत तीर्थकरजन्ममहोत्सवः ८१॥ - भावार्थ-तत्पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराज, वैश्रमण देव को बुलाकर ऐसा कहते हैं अहो देवानुप्रिय बत्तीस क्रोड हिरण्य बत्तीस क्रोड सुवर्ण बत्तीस क्रोड रत्न बत्तीस नंदनामक वृत्तासन बत्तीस भद्रासन अच्छा रूप लावण्य वगैरह भगवान् तीर्थंकर के जन्म भवन में साहरन करो और मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो तत्पश्चात् वैश्रमण शक्र देवेन्द्र के उस वचन को श्रवण करते हैं और मुंभक देवों को बुलाते हैं और उनको कहते हैं कि अहो देवानुप्रिय ! बत्तीस क्रोड हिरण्य वगैरह भगवान् तीर्थंकर के भवन में लाओ और इतना करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो वैश्रमण देव के ऐसा कहने पर जूंभक देव हृष्टतुष्ट होते हैं यावत् बत्तीस क्रोड हिरण्य यावत् सुभग सौभाग्य रूप यौवन लावण्य वगैरह तीर्थंकर के भवन में साहरन करके जहां वैश्रमण देव रहते हैं वहां आकर उनको उनकी आज्ञा पीछी देते हैं तत्पश्चात् वह वैश्रमण देव शक्र देवेन्द्र के पास आकर उनको उनकी आज्ञा पीछी देते हैं ॥२७॥ SCRIBE ॥८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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