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कल्पसूत्रे -सशब्दार्थे
॥६०९॥
पापपरिहारपूर्वक धर्मस्वीकारः
[इणमेव, निग्गथं, पावयणं] आज निग्रंथ संबधी प्रावचन (शास्त्र) [सच्चं]-सत्य [अणुत्तरं] प्रधान [केवलियं] केवलज्ञानी कथित [पडिपुण्णं] संपूर्ण [नेयाउयं] न्याययुक्त [संसुद्धं] अत्यंत शुद्ध [सल्लगत्तणं] मायादि शल्यने कापनार [सिद्धिमग्गं] | सिद्धिनो मार्ग [मुत्तिमग्ग] अष्ट कर्मथी मुक्त थवानो मार्ग [निज्जाणमग्गं] दोषरहित थवानो मार्ग [अवितह] यथातथ्य बराबर [मविसंदिर्द्ध] संदेह रहित [सव्वदुःख. पहीणमग्गं] सर्व दुःखनो क्षय करनार मार्ग [इत्थं, ठिआ, जीवा] आने विषे रहेता || थका जीवो। [सिझंति] ज्ञानादि सिद्धिने पामे छे.-[वुझंति] समग्र तत्वज्ञ थाय छ I [मुच्चंति] भवग्राहक कर्मथी मूकाय छे [परिनिव्वायंति] समस्त प्रकारे निवृत्त थाय छे । [सव्वदुःखाणमंतं करंति] सर्व शारीरिक मानसिक दुःखनो अंत करे छे [तं धम्मं] (तेमाटे) ते धर्मने [सदहामि] सर्दहुं छ' [पत्तियामि] प्रतीत आणु छ' [रोएमि] रूचि करूंछं [फासेमि] स्पर्श छु सेवु छु [पालेमि] पालुं छु रक्षा करुं छं [अणुपालेमि] वीतरागनी