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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥५७१॥ लोकं गच्छति' इदं वयणं कहं संगच्छेज्जा । एएणं वक्केणं देवाणं सत्ता सिज्जइ । अच्छा सत्थवणं, पस्सउ इमाए परिसाए ठिए इंदादि देवे । पच्चक्खं एए देवा दीसंति । एवं पहुस्स वयणं सोच्चा निसम्म मोरियपुत्तो छिन्न संसओ अधुट्ठसयसीसेहिं पव्वइओ ॥ १८ ॥ शब्दार्थ –[तए णं उवज्झायं सुहम्मं पव्वइयं सोऊण मंडिओवि अधुटु सयसीसेहिं परिवुडो पहुसमीवे समणुपत्तो] उसके बाद उपाध्याय सुधर्मा को दीक्षित हुआ सुनकर मण्डिक भी साढे तीन सौ शिष्यों के साथ भगवान के पास गये [पहूय तं कहे -- भो मीडिया ! तुज्झ मसि बंधमोक्खविसओ संसओ वहइ - ] भगवान ने मण्डिक से कहा - हे मण्डिक! तुम्हारे मन में बन्ध और मोक्ष के विषय में संशय है कि - [जं जीवस्स बंधो मोक्खो य हवइ न वा] जीव को बंध और मोक्ष होता है या नहीं ? [स मंडितमौर्यपुत्रयोः शङ्कानिवारणम् प्रत्रजनं च ॥५७१॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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