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कल्पसूत्रे
मशब्दाथै ॥४३||
शक्रेन्द्रक्रततीर्थकरजन्म. महोत्सवः
विउव्वेहि २ त्ता एसमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि ॥९॥ - भावार्थ-अब वह शक देवेन्द्र देव राजा अपने बहुत वैमानिक देवता देवियों को शीघ्रमेव अपने पास आए हुए देखकर हृष्टतुष्ट होते हैं और पालक नामक आभियोगिक देवको बुलाकर कहते हैं अहो देवानुप्रिय ! अनेक स्तंभवाला क्रीडा करती हुई पुत्तलियों से कलित ईहामृत वृषभ तुरग नर, मगर, विहग, व्यालक, किन्नर रुरु, सरभ चमर, कुंजर वनलता पद्मलता, समान चित्रवाले, स्तंभ पर उद्भवित वज्रमय वेदिका से मनोहर विद्याधरों के युगल युक्त सूर्य जैसे हजारो किरणों से कलित अतिशोभावाला तेज में कीरण डालता हुआ चक्षुओंको अवलोकन योग्य सुखकारी स्पर्शवाला सश्रीकरूपवाला घंटाकी पंक्तियोंसे चंचल मनोहर मधुर स्वरवाला सुखकारी कांत दर्शनीय निपुण कारिगरोंने बनाया हुआ मणीरत्न घंटाजालसे घेराया हुआ एक लाख योजन का विस्तार वाला पांचसौ योजनका उंचा शीघ्र त्वरित कार्य करने वाला ऐसा दीव्य यान विमान
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