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________________ MEE कल्पसूत्रे अंतिमोपसर्ग निरूपणम् सशब्दार्थ ॥३७९॥ हूं, अगर मैं किसी मुनि को यही भोजन-रूप में स्थित उडद अशन-देकर पारणा करूं तो मेरा कल्याण हो जाय । इस प्रकार विचार करके वह घर की देहली से एक पैर | बाहर और दूसरा पैर अन्दर करके मुनि के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी। वही राजकुमारी वसुमती श्री खंड चन्दन के समान शान्त प्रकृति वाली होने के कारण 'चन्दनवाला' इस नाम से विख्यात हुई ॥५७॥ अंतिमो उवसग्गो मूलम्-तए णं से समणे भगवं महावीरे कोसम्बीयाओ नयरीओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जणवयविहारं विहरइ । तओ पच्छा भगवं बारसमं चाउम्मासं चंपाए णयरीए चउम्मासतवेणं ठिए, तओ निक्खमिय छम्माणियाभिहस्स गामस्स बहिया उज्जाणम्मि काउसग्गंमि ठिए । तत्थ णं एगो "" -." --------- ॥३७९॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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